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Jul 24, 2018

Radha Prasad Singh Freedom Fighter, Meghoul,Begusarai, Bihar

बेगुसराय जिला बिहार का एक महत्वपूर्ण जिला है. इस जिले में एक से बढ़कर लोग हुए. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, डॉ राम शरण शर्मा जैसे प्रसिद्द लोगों की यह धरती अपने में एक से बढ़कर एक इतिहास समेटे हुए है. प्रस्तुत पोस्ट में हम ऐसे ही एक महान स्वतंत्रता सेनानी का उल्लेख करेंगे.

राधा प्रसाद सिंह सुपुत्र द्वारिका प्रसाद सिंह, ग्राम मेघौल, जिला बेगुसराय, बिहार 


मेघौल निवासी राधा प्रसाद सिंह बाबू द्वारिका प्रसाद सिंह के सुपुत्र थे. देश के स्वाधीनता संग्राम में २४ अगस्त १९४२ को उन्होंने अपना आत्म बलिदान दिया.  घटना स्थल प्रखंड विकास खोदाबन्दपुर चौराही था. बेगुसराय जिला पहले मुंगेर जिला का अन्दर ही आता था.

अगस्त आन्दोलन का दमन करने के दौरान अंग्रेज अधिकारियों ने जिस क्रूरता, रक्तपात और हिंसा की नीति का सहारा लिया, उसको शब्दों में बयान करना बहुत कठिन है. उन दरिंदों ने आजादी के सिपाहियों के साथ ही साथ निरीह ग्रामीणों के ऊपर जिस तरह का पाशविक अत्याचार किया, उसे सुनकर किसी भी सामान्य जन का रोम रोम काँप उठता है और उन ब्रिटिश गोरे लोगों के प्रति ह्रदय में नफरत और घृणा के भाव आ जाते हैं. 
२४ अगस्त के दिन अंग्रेज सैन्य अधिकारी एटकिन्स के नेतृत्व में सैनिकों की एक हथियारबंद टुकड़ी समस्तीपुर के क्षेत्रों में आतंक और कोहराम मचाने के बाद मेघौल नामक गाँव में पहुँची. यह गाँव वर्तमान में जिला मुख्यालय बेगुसराय से उत्तर दिशा में स्थित है.

उन दानवों की टोली के गाँव में प्रवेश करते ही ग्रामीणों के बीच अफरा तफरी मचना शुरू हो गया. जिनको जिधर का रास्ता दिखा, वे उधर ही गाँव के चारों तरफ गाँव छोड़कर  भागने लगे.  अंग्रेज सैनिकों ने लोगों के घरों पर पेट्रोल छिटकर आग लगाना शुरू कर दिया. राधा प्रसाद सिंह का भी घर जलाने को वे लोग आगे बढे. संयोगवश राधा प्रसाद सिंह उस समय अपने घर में ही मौजूद थे. उनके बहुत प्रतिकार करने के बाबजूद भी उन अत्याचारियों ने उनके घर में आग लगाकर उनके घर को जला डाला.

कुल इक्कीस लोगों के घर जलाये गए. अंग्रेजों का विरोध करने पर उन्होंने राधा प्रसाद सिंह को पहले तो बन्दुक के कुंदे से बहुत पीटा और अंग भंग कर दिया. गाँव से बाहर जाते समय उन नर पिशाचों ने उनको गोली मारकर बुरी तरह से घायल कर दिया. 

उनके कुछ शुभचिंतक उपचार हेतु उनको बेगुसराय अस्पताल ले जा रहे थे. बीच मार्ग में ही उनके प्राण पखेरू उड़  गए. इस प्रकार मेघौल गाँव का यह सीधा साधा मानव अंग्रेजों के दमन से अपने गाँव को बचाने के क्रम में वीरगति को प्राप्त हो गए.


Source: शहीदों की स्मृति लेखक: डॉ. नागेन्द्र सिन्हा, सूर्य भारती प्रकाशन, दिल्ली 

Jul 15, 2018

Yogendra Shukla Freedom Fighter of Bihar


अमर सेनानी श्री योगेन्द्र शुक्ल

Yogendra Shukla Freedom Fighter of Bihar अमर सेनानी श्री योगेन्द्र शुक्ल 


आज हम इस आलेख में बिहार के महान स्वतंत्रता सेनानी श्री योगेन्द्र शुक्ल के विषय में बातचीत करेंगे. उनका जन्म सन १८९६ में विजयादशमी के दिन मुज्ज़फरपुर (अब वैशाली) जिले में गंडक नदी के किनारे बसे गाँव जलालपुर के एक साधारण किसान के घर में हुआ था. उनके पिता श्री गन्नू शुक्ल एक सीधे-साधे किसान थे. वे दिन रात खेत में श्रम कर अपने परिवार का गुजारा करते थे. श्री योगेन्द्र शुक्ल अपने माता पिता की एकलौती संतान थे. इनके जन्म के कुछ समय पश्चात् ही इनकी माता हैजे के चपेट में आकर स्वर्ग सिधार गयीं. वे बहुत दिनों तक इस दुःख से दुखी रहे और सोते सोते अचानक मां मां पुकार कर रोने लगते थे. लोअर की पढाई उन्होंने अपने गाँव की पाठशाला में की. बाद में वे लालगंज स्कूल में पढने चले गए. वे अपनी कक्षा के सबसे तेज परन्तु नटखट छात्र थे. उनके चाचा भभीख नारायण शुक्ल मुज्ज़फरपुर में काम करते थे. उनके चाचा योगेन्द्र को १९१३ में मुज्ज़फरपुर ले गए और वहीँ पर उनका नामांकन भूमिहार ब्राहमण कॉलेजिएट स्कूल में करा दिया. उसी समय खुदीराम बोसे द्वारा मुज्ज़फरपुर में ही अंग्रेजों पर बम फेंकने और उनकी शहादत की घटना से वहां के युवाओं में उमंग की लहर थी. उन्ही दिनों आर्य समाजी साधू स्वामी सत्यदेव अमेरिका से लौटकर मुज्जफरपुर आये थे. वे छात्रों के साथ अमरीकी स्वतंत्रता की चर्चा किया करते थे. उनकी बातों से प्रेरित होकर शुक्ल जी ने पढाई छोड़कर अमेरिका जाने का निर्णय ले लिया. पटना के सेवा सदन के साथियों के संपर्क से उन्होंने अमरीका जाने का विचार त्याग दिया और देश में ही रहकर क्रांति की तैयारी करने लगे. इसी क्रम में वे दादा कृपलानी के सानिध्य में आये जो उन दिनों भूमिहार ब्राहमण कॉलेज में प्राध्यापक थे. दादा ने उन्हें फिर से पढने की सलाह दी लेकिन शुक्ल जी राजी नहीं हुए. उस समय कृपलानी जी महीनो से बीमार चल रहे थे. शुक्ल जी ने जी जान से उनकी सेवा की. फिर कृपलानी जी के पिताजी बीमार पड़े. शुक्ल जी करांची जाकर लगातार छः महीनो तक उनकी सेवा की और उनकी जान बचाई. बदले में खुद पियरी रोग के शिकार हो गए और महीनों तक बीमार रहे.

शुक्ल जी की इस सेवा भाव के बारे में महात्मा गांधी और सरदार पटेल तक को पता था.  वे उनको उस समय बिहार के एक अनमोल रत्न के रूप में जानते थे.

असहयोग आन्दोलन और शुक्ल जी 


यह बात सन १९१९ -२० की है. गांधीजी अपने असहयोग आन्दोलन की तैयारी में लगे हुए थे. सारे देश में एक उत्साह और उमंग की लहर सी थी. असहयोग आन्दोलन प्रारंभ होते ही कृपलानी जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी छोड़ दी और २५० लड़कों को लेकर बनारस में एक आश्रम स्थापित कर दिया. श्री योगेन्द्र शुक्ल भी उस आन्दोलन में जोर शोर से जुट गए. बनारस में प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन के अवसर पर उनके स्वागत के बहिष्कार के कारण कृपलानी जी अपने १२ साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिए गए.
दूसरे दिन सुबह शुक्ल जी एक और आश्रम वासी के साथ थाने के बरामदे पर चढ़कर जोर जोर से कहने लगे – प्रिंस का बायकाट करो ... प्रिंस ऑफ़ वेल्स का बायकाट करो. अब उनको भी गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया.


जेल की दिलचस्प घटना 


इन्हीं दिनों जेल में एक बहुत ही दिलचस्प घटना घटी.  इससे शुक्ल जी के अदम्य साहस का भान होता है. शाम को जन सारे कैदियों को बंद किया जाने लगा तो शुक्ल जी सबकी आँख बचाकर उस कड़ाके की सर्दी में पानी से भरे एक टब में बैठ गए. गिनती के समय जब एक कैदी कम पाया गया तो खोज शुरू हो गयी. उन दिनों ब्रिटिश सरकार में एक कैदी का भाग जाना बहुत ही असाधारण घटना थी. इससे जेल के अधिकारी को भी सजा दी जा सकती थी. बहुत दौड़ धूप और खोज बीन शुरू हो गयी. जेल का कोना कोना छान लिया गया. शुक्ल जी का कहीं पता नहीं चल सका. बहुत रात बीतने पर जब शुक्ल जी टब से बाहर निकले तो उनके इस दुस्साहस को देख सभी लोग दंग रह गए.

जेल से छूटने के पश्चात पुनः शुक्ल जी कृपलानी जी के आश्रम में आ गए. जब कृपलानी जी साबरमती आश्रम, गुजरात गए तो वे भी उन्हीं के साथ साबरमती चले गए. साबरमती आश्रम में शुक्ल जी हर तरह का काम करते थे. जैसे बापू की तेल मालिश, कमरों की सफाई और ऐसे सभी छोटे छोटे काम जो उन दिनों के सफेदपोश तैयार न थे और शायद आज भी वैसे लोग तैयार न हों. वे उसमे अपना अपमान समझते थे. लेकिन शुक्ल जी एक काम नहीं करते थे और अन्य सभी लोग उस काम में जरुर शामिल होते थे – वह था बापू की प्राथना सभा में शामिल होना. आश्रम के नियम के अनुसार हर आश्रम वासियों को प्रार्थना में शामिल होना अनिवार्य था. लेकिन शुक्ल जी का कहना था कि उनको ईश्वर और प्रार्थना में विश्वास नहीं. वे कर्म को ही ईश्वर मानते थे. आश्रम के कुछ लोगों ने इसकी शिकायत गांधी जी से कर दी. गांधी जी बोले – “प्रार्थना से जो चीज मनुष्य को प्राप्त होती है वह योगेन्द्र को यों ही प्राप्त है.” 

शुक्ल जी साबरमती आश्रम में कुछ दिनों तक रहे लेकिन आन्दोलन के अहिंसात्मक तरीके पर विश्वास न जैम पाने के कारण वहां से चले गए. गांधी जी शुक्ल जी के जाने पर दुखी हुए, मगर स्नेह भाव बराबर बनाये रखा. इससे पूर्व शुक्ल जी बनारस, हमीरपुर, सुल्तानपुर, मेरठ आदि खादी आश्रमों में भी तीन चार साल रहे. १९२५ में वे फिर हाजीपुर लौट आये और ब्रिटिश सरकार के शब्दों में कहा जाय तो उस इलाके को अराजकता वादियों का भयंकर केंद्र बनाया और अपना नाम लाल क्रांतिकारियों के लिस्ट में दर्ज करा दिया.

क्रांति दल में शामिल 


क्रांति दल में शामिल होने के बाद शुक्ल जी पंजाब चले गए. अपने निर्भीक स्वाभाव, दृढ विचार और अजेय साहस के कारण उन्होंने क्रांतिकारी दल में शीघ्र ही विश्वास और योग्य स्थान प्राप्त कर लिया. सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजेंद्र लाहिरी, शचीन्द्र बक्शी आदि क्रांतिकारियों के साथ उन्होंने दल को देशव्यापी संगठन का रूप दिया. ब्रिटिश हुकूमत को सशस्त्र क्रांति के द्वारा उखाड़ फेंकने के लिए भोपाल में एक स्थान तय किया गया और शुक्ल जी को उसका प्रबंधक बनाया गया. १९२८ में चंपारण के जंगल में लाकर भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद को निशानेबाजी का प्रशिक्षण दिया. सशस्त्र क्रांति हेतु जमा किये गए अपने गुप्त शस्त्रागार दिखलाया, जिसे देखकर भगत सिंह भी स्तब्ध रह गए.  वे बम्बई, कलकत्ता, करांची इत्यादि जगहों पर भी क्रांतिकारी संगठन के काम से गए और सशस्त्र विद्रोह की तैयारी में कूद पड़े. कुछ ही दिनों में उन्होंने हाजीपुर से बहुत से युवकों को दल में शामिल कर प्रशिक्षित कर दिया. सरदार भगत सिंह और अन्य बड़े क्रांतिकारी यहाँ बराबर आते रहते थे. जब भगत सिंह आते थे तो वे उनको आम के बगीचे में ठहराते और उनका परिचय एक आम के व्यापारी के रूप में देते थे. उन दिनों क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी बनाई. चंद्रशेखर आज़ाद इस संस्था के हेड थे.  शुक्ल जी इस आर्मी के प्रमुख नायक थे. ३ जुलाई १९२९ को मौलनिया डकैती केस के सिलसिले में शुक्ल जी के नाम का गिरफ्तारी वारंट निकला, वे १० जून १९३० तक फरार रहे. इन दिनों उनके द्वारा किये गए एक एक काम उनकी जिन्दादिली और दुर्दांत साहस का परिचायक है.

सरदार भगत सिंह को लाहौर सेंट्रल जेल का फाटक तोड़कर छुड़ा लेने की योजना बनाई गयी. इसके लिए चंद्रशेखर आज़ाद ने शुक्ल जी को बिहार से बुलबाया. पर उसी समय भेद खुल जाने के कारण इस योजना को स्थगित कर  दिया गया. शुक्ल जी दिल्ली से वापस लौटे. उनके पीछे दिल्ली से ही सी आई डी के लोग पीछे लग गए थे. आगरा कैंट स्टेशन पर शुक्ल जी को इसका आभास हुआ. मेल ट्रेन जब स्टेशन से खुली और पूरी रफ़्तार में आ गयी तो उस काली स्याह रात में शुक्ल जी ट्रेन से कूद पड़े. उनको काफी चोटे आयी. थोड़ी देर सुस्ताने के बाद वे फिर चल पड़े.


उसी समय एक अन्य घटना घटी जो इस प्रकार है:


हाजीपुर में उनको पता चला कि पुलिस उनको पकडने आ रही है. रास्ते में चल रहे एक यात्री को पिस्तौल दिखाकर उसकी साइकिल ले ली और चलते बने.  कुछ दूर जाने पर देखते हैं कि हाजीपुर गंडक पुल को दोनों ओर से सशस्त्र पुलिस ने घेर रखा है और उनको जिन्दा या मुर्दा पकड़ने को तत्पर है. फिर क्या था अदम्य साहस का परिचय देते हुए वह वीर बांकुरा भादो मास की उमड़ती विकराल धार वाली गंडक नदी में कूद गए. अब पुलिस वाले पानी में तैर रहे शुक्ल जी की पगड़ी पर गोली बरसाने लगे. वे नदी में गोता लगाकर पुलिस की गोलियों को चकमा देते रहे और तेज गति से तैरते रहे. १४ मील तैरने के बाद गंगा की धार से निकल कर मारुफगंज पहुचकर पुरी रात गीले कपडे में बिताई. अहले सुबह मोकामा, सिमरिया, बेगुसराय होते हुए पुनः अपने इलाके में लौट आये.

बिहार में हुई राजनैतिक डकैतियों के बारे में अपने दिए गए फैसले में अंग्रेज जज ने शुक्ल जी के बारे में लिखा था – “वह इन कांडों के प्रमुख व्यक्ति हैं. वह एक सुपुष्ट और सुन्दर शरीर वाले आदमी हैं. इसमें संदेह नहीं कि अपने साथियों और सहयोगियों पर इनका बड़ा प्रभाव है. वे अंग्रेजों को मारने, ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे के लिए हथियार और पैसे एकत्रित करने के लिए वे डकैतियां करते- कराते रहते हैं.”

शुक्ल जी मलखाचक ने ठहरे हुए थे. एक गद्दार रामानंद सिंह ने उनको सोये हुए ही गिरफ्तार करवा दिया. उनकी गिरफ्तारी ११ जून १९३० को हुई. भेदिये से मिली सूचना पाकर छपरा से एक विशेष ट्रेन में मिलिट्री के साथ एक सार्जेंट आया. ट्रेन को मलखाचक के पास रोक दी गयी और गाँव को चारों ओर से घेर लिया गया. एक दर्जन बन्दुक धारी पुलिस उस स्थान पर पहुंचे जहाँ शुक्ल जी बेखबर सो रहे थे. सैनिक उनके हाथ, पैर को पकड़ लिया और छाती पर सवार हो गया. उनके हाथ पैर बाँध दिए गए और तलाशी ली गयी. उनके तकिये के नीचे से दो लोडेड रिवोल्वर मिले. उनको बेरहमी से पीटा गया और अधमरा कर दिया. गुदा मार्ग में मिर्च ठुसे गए और उनका बहुत भयानक तरीके से टार्चर किया गया कि वे अपने अन्य फरार क्रांतिकारियों का पता बता दें. शुक्ल जी ने उनको जवाब दिया – “ मुझे जानकारी तो सबके बारे में और सब कुछ है पर मैं एक भी शब्द बतलाऊंगा नहीं.” तब उन्हें आधी बेहोशी की हालत में बांस में बांधकर और १२ सैनिक लारी तक ले गए. वहां ले जाकर इस सपूत वीर को एक बोरे की तरह लारी में पटक दिया. उनको अनेक मुकदमों में कुल मिलाकर २२ वर्षों का सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी. भागलपुर, हजारीबाग और कलकत्ता के जेल में रखते हुए उन्हें दिसम्बर १९३२ में कालेपानी की सजा सुनाई गयी और उनको अंडमान के जेल में भेज दिया गया. वहां भी उनको लगातार संघर्ष करना पड़ा. अनशन पर विश्वास नहीं रखनेवाले इंसान को अपने साथियों के साथ कितनी बार अनशन करना पड़ा. जब भागलपुर जेल में उनको बेड़ियाँ डाली गयी तब १८ दिनों तक अनशन करके उन्होंने उस ज़माने के जेल अधिकारियों को भी झुका दिया और बेड़ियाँ हटाने को मजबूर कर दिया. १९३३ में अंडमान में अन्य ७५ कैदियों के साथ भूख हड़ताल के दौरान उनकी एक आँख पूरी तरह से ख़राब हो गयी थी और दूसरी की ज्योति क्षीण. अपने जेल जीवन में अनेक बीमारियाँ उनकी जीवन संगिनी हो गयी और मौत तक उनके साथ बनी रही. १९३७ में बिहार में एवं अन्य कुछ राज्यों में १९३५ इंडिया एक्ट के अनुसार निर्वाचन हुए और कांग्रेस की सरकार बनी. डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह बिहार के प्रधानमंत्री बने. स्वतंत्रता सेनानी जो जेलों में बंद थे, कुछ रिहा कर दिए गए परन्तु योगेन्द्र शुक्ल की रिहाई के सवाल पर राज्यपाल सहमत नहीं हो रहे थे. डॉ. श्री कृष्ण सिंह ने इस सवाल पर अपनी सरकार का त्यागपत्र पेश कर दिया कि यदि एक भी स्वतंत्रता सेनानी जेल में रहा तो मैं राज्य नहीं चलाऊंगा. अंत में वायसराय के हस्तक्षेप पर राज्यपाल को झुकना पड़ा और शुक्ल जी १९३९ में जेल से रोगी की हालत में बाहर आये.

मगर शुक्ल जी की तो अलग ही मस्ती थी. बाहर आते ही पुनः उसी मार्ग पर आ गए, जहाँ से जेल, सेल, लाठी, गोली के सिवा कुछ नहीं मिलता है. १९४२ की क्रांति में हाजीपुर धू –धू कर जलने लगा. शुक्ल जी पुनः गिरफ्तार कर लिया गया और केंद्रीय कारा हजारीबाग में बंद कर दिया गया. वहां उनके साथ कई अन्य लोग भी थे जिनमे प्रमुख बसाबन सिंह, श्याम नंदन वर्मा, राम नंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, जय प्रकाश नारायण, गुलाली लोहार थे. शुक्ल जी ने अपने काँधे पर चढ़ाकर एक दो तीन आदमियों को जेल की चाहरदीवारी की उंचाई तक पहुंचा दिया और ऊँची दीवार को फांद, बीहड़ जंगल अंधेरी रात काँधे पर जे. पी., एक हाथ से राम नंदन मिश्र को थामे भाग निकले और एक बार फिर से क्रांतिकारी कार्य में लग गए. रास्ते में एक बाघ निकला तो सभी डर गए. मगर जब जंगल के शेर ने धरती के शेर को देखा तो रास्ता बदलकर चला गया.

क्रांतिवीर शुक्ल जी के वीरता की कहानियों का कोई अंत नहीं है. १९४९ में शुक्ल जी कुछ कांग्रेसी नेताओं के साथ एक बार नाव पर सवार होकर हाजीपुर से पटना आ रहे थे. बीच धार में मल्लाह ने कहा – ‘ भयानक आंधी आ रही है और लगता है कि अब हमलोग गंगा के बाहर नहीं निकल पायेंगे”. शुक्ल जी ने यह सुनते हुए जल्दी से पतवार थाम ली. सात मिनट में नौका को लाकर पटना के घाट पर लगा दिया. आधे घंटे की यात्रा सात मिनट में पूरी कर ली. घाट पर पहुँचने पर तेज आंधी आयी और घुप्प अँधेरा छा गया. शुक्ल जी के कारण ही मल्लाह सहित सभी सवार पटना पहुँच पाए वरना नदी में डूब गए होते. शुक्ल जी उस समय एम् एल सी थे.

विधान परिषद् के सदस्य 


१९४८ में शुक्ल जी प्रजा समाजवादी दल के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान परिषद् के सदस्य चुने गए और १९५३ तक इस पद पर रहे. वे अपने वेतन का अधिकांश भाग दल के कामों के लिए दे दिया करते थे. उनके नाम से आवंटित क्वार्टर का भी उपयोग पार्टी कार्यालय के रूप में किया जाता था. उनकी कोई भी चीज यहाँ तक कि उनकी जिन्दगी भी उनके लिए नहीं थी, उनका रोम रोम देश को समर्पित था. लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में इस महान राष्ट्रभक्त की बहुत उपेक्षा हुई. अंतिम समय में ब्लाक का डॉक्टर भी उनका इलाज करने नहीं आता था. कोई नेता भी उनका कुशल क्षेम पूछने नहीं आता था. इस महान स्वतंत्रता सेनानी का निधन १९ नवम्बर १९६६ को रात के दो बजे पटना मेडिकल हस्पताल के कॉलेज वार्ड में हो गया. उनके पुत्र का नाम वीरेंद्र शुक्ल है. शुक्ल जी का जन्म ब्रह्मर्षि कुल में हुआ था और आज आजादी के दीवाने के धरोहर को बचाने की जरुरत है. राष्ट्र के लिए अपने सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस महान सेनानी को इतनी उपेक्षा हुई है जिसका कोई वर्णन नहीं है. इनके गाँव जलालपुर को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने का प्रयास सरकारों को करनी चाहिए. शुक्ल जी का जीवन उन तमाम युवाओं और देश प्रेमियों के लिए आदर्श है जिनके आदर्श सरदार भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद रहे हैं.