एक कहानी नहीं पूरा शोध प्रबंध है 'भैया एक्सप्रेस'
अरुण प्रकाश चले गए यूं लगा मानो भैया एक्सप्रैस पंजाब पहुंचने से पहले ही अकस्मात दुघर्टनाग्रस्त हो गया हो। उस पर सवार रामदेव अब कैसे अपने भैया विशुनदेव को खोज कर लाएगा। नवब्याही भौजी कब तक इंतजार करती रहेगी। माई कब तक कनसार में अनाज भूनकर, सत्तू पिसकर पंडितजी से लिए कर्ज का सूद भरती रहेगी।
कम से कम मुझे तो यह आशा जरूर थी की अरुण प्रकाश अपने जीवन में ही पुरबियों जिसमें बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि के गरीब मजदूरों के साथ अन्य राज्यों में पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर पूर्वी राज्यों में अन्याय बंद हो जाएगा। पर नहीं आज भी लाखों मजदूर अन्य प्रदेशों में रोजी-रोजगार के लिए जानवरों की भांति अनेक भैया एक्सप्रैस रेलगाड़ियों में ठुंसे चले जा रहे हैं। अमानवीय स्थितियों में काम करने को मजबूर हैं। उनका शोषण घर में निकलने के साथ जो शुरु होता है वह रेल के जनरल डब्बों में टिटियों, भेंडरों, हिजडों, कुलियों, पॉकेटमारों से लेकर जिस-जिस व्यक्तियों से साबका पड़ता है सब लूटता है। सामान्य शहरी बाबूओं को तो उनको देखते ही उबकाई आती है। जहां जाते हैं वहां की सरकारों के लिए तो बोझ हैं ही,
अरुण प्रकाश ने ऐसे दारूण समय में भैया एक्सप्रैस कहानी लिखकर लोगों का ध्यान खींचा जब बिहारी मजदूरों को पंजाब में भीड़ से, रेल गाड़ियों से, बसों से अलग कर करके मूली, गाजर और कद्दु की तरह काटा जा रहा था। इनके लिए सरकार या समाज कहीं से कोई सहानुभूति के कोई शब्द नहीं, कोई मुआवजा नहीं, इनका कोई मानवाधिकार नहीं। मानो वे इसी तरह के नृशंस हत्याओं और अमानवीय व्यवस्था में जीने के लिए पैदा हुए हों। इनकी माएं रेडियो में कान गडाए इंतजार करतीं और सुनती प्रतिदिन हत्याओं की काफी कमकर बताए कुछ संख्या, पत्नी और बच्चे गांव के बनिए से कर्ज लेकर कमाने गए के सूद भरते और इंतजार करते-करते रोज मरती खपती। कभी किसी का छोटा भाई तो किसी का बूढ़ा बाप अपनों को ढूंढने भैया एक्सप्रैस पे सवार हो बचते-बचाते उन्हें ढूंढने जाता और पाता सिर्फ दुःख। दारूण दुःख जिसका कोई पारावार नहीं।
इसी को शब्द दिया अरुण प्रकाश ने भैया एक्सप्रैस लिखकर। यह सिर्फ एक कहानी नहीं पूरा समाजशास्त्र, शोध प्रबंध है पूर्वांचल हिन्दी प्रदेश के मजदूरों का। दिल्ली के दंगो में सिखों की निर्मम हत्याएं हुई। अनेक दंगो में मुसलमानों की हत्याएं हुई। दोषियों पर मुकदमे चले, इनके परिवारों को मुआवजे मिले, इनके साथ इंसाफ के लिए मानवाधिकार संगठन अनेकों स्वैच्छिक संगठन संघर्ष किए और कर रहे हैं। पर इन बेचारे मजदूरों को अब तक क्या मिला अभी तक ठीक-ठीक कोई अध्ययन तक नहीं हुआ है कि कितने मजदूर पंजाब में उस दौरान मारे गए इंसाफ, मुआवजे, मुकदमों आदि की क्या कहने कोई सहानुभूति के शब्द तक नहीं अगर कभी अध्ययन हुए और आंकड़े बाहर आए तो चौंकाने वाले आंकड़े होंगे। अगर इन शहीद पूर्वी प्रदेश के मजदूरों को कोई सच्ची श्रद्धांजलि मिली तो कथाकार अरुण प्रकाश की तरफ से यह कहानी जिसका नाम है- भैया एक्सप्रैस।
मैं अपने संकोची स्वभाव के कारण कई बार उनको कई कार्यक्रमों में सुनता उनसे आमन-सामना भी होता पर अपनी दिल की बात नहीं कर पाता एक बार करीब चार-पांच साल पहले साहित्य अकादमी में लाइब्रेरी के बाहर बने सीढ़ीनुमा बैठकी पर मोबाइल से किसी से बात में तल्लीन थे मैं उनके करीब गया और नमस्ते किया उन्होंने अपने पास बगल में बिठा लिया और अपनी कहानियों के बारे में खुलकर बातें की। मैं जब उनसे उपरोक्त लिखी कई बातों का कहानी के संदर्भ में उल्लेख किया तो वे मुझे निहारने लगे और बोले भाई मैं तो जब भैया एक्सप्रैस लिखा तो इतना सोचा भी नहीं था तो मैंने कहा आपने यह कहानी लिखकर जिस समस्या की ओर इंगित किया वह आज भी दिल्ली समेत पंजाब हरियाणा महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर के कई प्रदेशों में जारी है। फिर मेरे बारे में पूछा तो मैंने बताया मैं उस समय में एक सामाजिक संगठन में रिसर्चर था उसके बारे में बताया और कहानी लिखने की रूचि के बारे में भी। उन्होंने सिर्फ यही कहा कि देखिए हिन्दी में कहानी लिखकर तो परिवार तो चला नहीं पायेंगे इसलिए इसे तो अतिरिक्त भाव शौकिया ही करना पड़ेगा इसलिए जो भी लिखिए ठोस लिखिए और छपास बीमारी से ग्रसित होकर किसी के आगे-पीछे चक्कर लगाकर बेकार में ऊर्जा नष्ट मत कीजिए......। मुझे उनसे एकबार मिलकर और कई मुद्दों पर बातें करनी थी पर भैया एक्सप्रैस बीच में ही दुर्घटनाग्रस्त हो गई, उनकी कही बातें आज भी मुझे शब्दशः याद हैं।
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