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Jan 24, 2012

दुलारपुर दर्शन - 5

दुलारपुर मठ (DULARPUR MATH)
दुलारपुर का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। वस्तुतः दुलारपुर के इतनी प्रसिद्धि  में दुलारपुर मठ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जहाँ एक ओर दुलारपुर मठ अध्यात्म, धर्म  और ज्योतिष विद्या का प्रमुख केन्द्र एवं प्रचार स्थल रहा है, वहीं दूसरी ओर धर्मंनिरपेक्ष भावनाओं का प्रवाहस्थल भी रहा  है। अतीत से वर्तमान तक दुलारपुर मठ दान स्थल और सामाजिक न्याय का केन्द्र बिन्दु रहा है। दुलारपुर मठ के चारों तरफ मठ की ही देखरेख में, संरक्षण में विभिन्न छोटी-छोटी जातियों का भरण पोषण होते आया है। सबों में आपसी सौहाद्र एवं एका की भावना दुलारपुर मठ की सबसे बड़ी उपलब्धि है। अतः दुलारपुर मठ का इतिहास जाने बगैर  दुलारपुर ग्राम का इतिहास अधूरा साबित होगा।
दुलारपुर मठ - एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक एवं  सांस्कृतिक केंद्र

दुलारपुर मठ संन्यासियों का प्रमुख धर्मं स्थल रहा है। यहाँ के महंथ का उपनाम भारती है। देवी के ब्रह्माण्ड से पूरी; ललाट से भारती; जिह्वा से सरस्वती; बाहु से गिरि, पर्वत, सागर एवं कुक्षि से बन एवं अरण्य उपनाम वाले संन्यासियों की उत्पत्ति मानी जाती है। 

भारती दक्षिण के अवस्थित श्रृंगेरी मठ के संन्यासी, पुरी, भारती और सरस्वती उपनाम वाले संन्यासी का सबसे बड़ा धर्मंस्थल श्रृंगेरी मठ है।। इनका सम्प्रदाय भूरवार, देवता-आदिवराह, देवी- कामख्या देवी, वेद-यजुरवेद, गोत्र-भु-भुवः, तथा आचार्य-पृथ्वीध्राचार्य हैं। इनमें  ब्रह्मचारी को चैतन्य कहा जाता है। संन्यासियों के सात अखाड़ा होते है।     
१. पंथनिरंजनी  २.पंचअटल  ३.पंचमहानिर्वाणी ;   ४. पंचजूना      ५.पंचआनन्द  ६.पंचआवाहन     ७. पंचअग्नि ।
दुलारपुर मठ मंचमहानिर्वाणी अखाड़ा का मठ है। भारती उपनामधारी  संन्यासियों की चार मठी हैं। १. मुकुन्द भारती २. नृसिंहभारती   
३. पदम्नाभभारती  ४. बालविषय नाथ भारती । 

दुलारपुर मठ मनमुकुन्द भारती के मढ़ी के अन्तर्गत आता  है। इस तरह की मढ़ी एवं अखाड़ा का निर्माण भारत के सभी मठों को एक सूत्र एवं धारा में लाने के लिये किया गया।

स्थापना - शाम का समय। सूर्य अस्ताचल में जाने-जाने को था। सूर्य प्रकाश की लालिमा को चीरता हुआ एक गौरवपूर्ण संन्यासी गंगा के किनारा को चलता हुआ आगे बढ़ रहा था। सहसा गंगा के किनारे में ही वह पलथी लगाकर बैठ जाता है और ‘ॐ’ का जयकार प्रांरभ कर देता है। हाथ में त्रिशूल और तन पर लंगोटी के अलावा कुछ भी नहीं है उसके पास। वे हठ योग प्रारंभ कर देते हैं। कई दिनों तक वे एक ही मुद्रा  में आसन लगाकर बैठे रहते हैं। उसके  बाद जमीन खोदकर सुरंग बनाकर रहने लगते हैं।

 वे वहीं घुनी लगाकर रहने लगे तथा गंगा स्नान करने लगे।  गांव के लोग भी प्रातः काल गंगा स्नान करने जाते तो बाबा को योग मुद्रा में ध्यानरत देखते थे। उनकी चर्चा धीरे - धीरे  सब जगह होने लगी। गाँव के लोग भी बाबा के दर्शनार्थ जाने लगे। इस तरह से वहां के लोग बाबा से घुलने मिलने लगे  अब दुलारपुर गांव के लोगों से बाबा को काफी स्नेह हो गया। एक दिन बाबा ने अपनी इच्छा प्रकट की। अगर हमें यहाँ थोड़ी-जमीन मिल जाय तो अपना आश्रम बना लूँ, परंतु गांव के लोगों ने इसका विरोध किया कि गाँव में संन्यासी का रहना ठीक नहीं।
इससे हमारे गाँव के श्री एवं संस्कार पर प्रभाव पड़ेगा। खैर, बाबा एक धुनीरत हठयोगी, संन्यासी बनकर ही रहने लगे।
एक दिन की बात है। नवाब गौहरअली खान का माल-असबाब से लदा हुआ एक बड़ा नाव  जा रहा था। शाम हो जाने की वजह से नाव पर सवार लोगों ने नाव किनारे लगाकर वहीं रात्रि विश्राम करने लगे। पुनः सुबह जब वे लोग जाने को तैयार हुए तो नाव पानी में आगे बढ़ता ही नहीं था। लगता था मानों नाव किनारे की जमीन से चिपक गया हो। 

इस प्रकार वह नाव लगभग पन्द्रह दिनों तक उसी प्रकार  किनारे में लगा रहा। दुलारपुर के लोगों ने भी काफी प्रयास किया कि नबाब गौहर अली  खान का नाव किनारे से छूट जाये, पर ऐसा संभव नहीं हो सका। सभी लोग निराश हो गये। एक दिन एक गांव का  ही युवक, बाबा के समीप गया और उनसे कहा- बाबा, इस पर दया कीजिए और इसका नाव तट से छुड़ा  दीजिये। बाबा के हँसते हुए कहा-अगर नाव छुड़ा दूँगा तो क्या तुम्हारे गाँव वाले यहाँ मन्दिर बनाने देंगे। यह बात सब जगह फैल गयी कि बाबा ने  एक  शर्त रखी है। अगर हम लोग उनकी शर्त को पूरी कर देंगे तो बाबा नाव अकेले ही तट से छुड़ा देंगे। कुछ उच्छृखंल लोगों ने बाबा का मजाक भी उड़ाया और  कहा कि अगर बाबा ऐसा कर दें तो मैं मंदिर बनबा दूंगा  दूसरे दिन सुबह में बाबा ने अपने सारे वस्त्र खोल दिये। और कहा जाता है कि उन्होंने उतनी बड़ी नाव के जंजीर तो अपने कमर  में (लिंग में) बांध कर नाव को एक ही झटके में तट से छुड़ा दिया। सभी लोग बाबा के बल का लोहा मान गये। उनका नाम योग भारती था। ऐसे हठयोगी होने के कारण लोग उन्हें हठीनाथ भी कहते थे।
श्री योगभारतीः- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि योगभारती योग पारंग थे। योगागम के अच्छे ज्ञाता थे  उनकी इस अदभुत  घटना से प्रभावित होकर दुलारपुर गाँव के लोगों को उनके बल का पता चला। सभी लोग उनका महिमागान कर रहे थे। मठ बनाने के लिए जमीन उपलब्ध कराई गई। जो गाँव से पूरब था। मठ की खेती के लिए 61 बीघा जमीन दी गई।
51 बीघा जागीर क्षेत्र में  तथा  10 बीघा महमदपुर फत्ता क्षेत्र में। इस प्रकार दुलारपुर मठ की स्थापना श्री योगभारती ने ग्रामीणों के सहयोग से की। ग्रामीणों ने विधिवत मठाधीश की पगड़ी श्री योगभारती को दी।  नवाब गौहर अली खान ने भी  मठ को कुछ जमीन दी थी। नरहन स्टेट की महारानी विश्वेश्वरी कुँवरी को पुत्र नहीं होता था। योगभारती जी के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। तब उन्होंने दान स्वरूप जमीन धरम पुर एवं जगदीशपुर, थाना सरायरंजन जिला समस्तीपुर में दिया। 

यहीं से दुलारपुर मठ का गौरवशाली इतिहास प्रारंभ हुआ। मठ में पुजारी की व्यवस्था कर वे योगमाया से पूर्णिया  जंगल में प्रकट हो गये और हठयोग करने लगे। बाबा यहाँ धुनी की अग्नि में अष्टधातु  का लंगोट रखकर नदी में स्नान करने जाते थे और स्नान से वापस आकर धुनी से लाल  तप्त लंगोट निकालकर पहन लेते थे और हठ योग करते थे। यहाँ के लोग योगभारती को हठीनाथ के नाम से जानते हैं। एक दिन बाबा के स्नान के समय नवाब सौकतअली का हाथी पीलवान घाट पर गया और बाबा के साथ बदतमीजी की।
बाबा ने क्रोधित  होकर हाथी का दोनों दाँत उखाड़ लिया। समाचार पाकर नवाब शौकत अली ने बाबा को  बहादुर की संज्ञा देकर इनाम के रूप में मांस का भाड़ भेजा लेकिन भाड़ वापस जाकर मोती चूर का लड्डू बन गया। नवाब ने बाबा से माफी मांगी और यहाँ का जंगल बाबा को दान कर दिया। बाबा योगभारती ने यहीं पर माता पूर्ण देवी को स्थापित कर दिया। पूर्णियाँ जिला इसी माँ पूर्ण देवी ने नाम पर बना है। जब लोगों का वहाँ भी आवागमन बढ़ गया तो बाबा हठी नाथ (योगभारती) ने अपने  शिष्य, हठी लंगोट और हाथी दाँत का सिंहासन वहीं छोड़कर  कटक चले गये। कटक से वापस आकर वे नेपाल के जंगल में चतरा नामक स्थान पर पहुंचे । यह स्थान चतरा गद्दी के नाम से विख्यात हो गया ‍ यहाँ बाबा गुद्ड़ी योग करने लगे। 

कहा जाता है कि एक बार नेपाल महाराज बाबा योगभारती से मिलने गये। उस समय बाबा बीमार थे।  अतः उन्होंने महाराज को कहला भेजा कि दो घंटे बाद मैं ठीक हो जाऊँगा तब भेंट करूँगा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी गुदड़ी रूपी वस्त्र उतार दिया और स्वस्थ होकर नेपाल महाराज से बातचीत की। इस घटना को देखकर नेपाल महाराज काफी आश्चर्यचकित हो गये। तब बाबा ने कहा - बीमार शरीर को ठीक करने के लिए तप करने से अच्छा तो लोक कल्याण के  लिए तप किया जाय। सांसारिक कपट को झेलना तो विधि का विधान है। उसे तो सबों को झेलना पड़ता है। परंतु कुछ समय के लिए इससे त्राण पाकर आपसे बातचीत कर लिया। यही काफी है। 

वस्तुतः यह उनकी  सिद्धि  का फल था। महाराज ने बाबा का यह चमत्कार देखकर 14  कोस का जंगल दान में दे दिया। चतरा नेपाल गद्दी से तीन कोस उत्तर वराह क्षेत्र है। यहीं मनमुकुन्द भारती नाम से एक संत थे। जनश्रुति है कि उन्होंने अपने तप - बल से सखुआ के पेड़ में आम का फल लगा दिया था। बाबा योग भारती और बाबा हंस भारती महंथ बालमुंकुद भारती के शिष्य  थे।
श्री हंसराज भारतीः- हंसराज भारती हंस सिदधि प्राप्त थे। भेजा मठ के संस्थापक हंस भारती ही थे। हंसभारती बाबा योगभारती ने गुरु  भाई थे। परंतु योगभारती उनसे उम्र में काफी बड़े थे। एक बार भेजा जंगल में हंसराज भारती तपस्या कर रहे थे। उधर  से ही 151 डाला का भार जा रहा  था।  भारवाहक डाला इसलिए ले जा रहे थे कि हिम्मतसिंह की शादी नेपाल महाराज के परिवार हुई थी। भार वाहक लोगों ने शांति पूवक तप कर रहे हंस भारती को तंग करने लगे और उनकी समाधि भंग करने की कोशिश करने लगे। बाबा ने उन्हें मना किया। लेकिन एक भारवाहक ने कहा, तुम्हारे मुँह में इसी टोकरी का मछली ठूस दूँगा। बाबा क्रोधित  हो गए और उनकी सारी मछली निगल गए। जब वहाँ के राजा को यह बात पता चली । वह भागा-भागा आया, अनुनय विनय किया। बाबा ने सारी मछली पुनः उगल दिया। भीठ भगवानपुर के राजा हिम्मतसिंह ने 1760 ई॰ में भेजा में खजूरी मौजे में 24 बीघा जमीन मठ को दान स्वरूप दिया। खौरवपुर बरियारी के महाराज ने हंसराज भारती को लिज्जा मौजे दान में  दिया। योगभारती के बाद हंसराज भारती ने दुलारपुर मठ का सारा दायित्व सम्हाल लिया। इनके समय भी मठ ने काफी विकास किया।
3. मणिराम भारतीः- हंसराज भारती के बाद मणिराम भारती दुलारपुर मठ के महंथ बने। ये भेजा मठ का प्रबंधन  साथ की साथ देख रहे थे। वहाँ का भी लगान दुलारपुर मठ को  ही प्राप्त होने लगा। मणिराम भारती के समय में  ही गंगा में कटाव प्रारंभ हुआ। मठ की भव्य इमारत, मंदिर, दानालय, भोजनालय आदि एवं दुलारपुर गाँव गंगा की गोद मे समा गई। कटाव के बाद मठ एवं गाँव दरियापुर (रामपुरगोपी ) में आकर बस गया। मठ का निर्माण कार्य पुनः आरंभ हुआ। मठ ‘बीचली’ में बनाया गया। कुछ वर्षों में  ही मठ पुनः बनकर तैयार हो गया।
4. टीकमभारती- मणिराम भारती के बाद टीकमभारती मठ के महंथ बने। इनके  विषय में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है। ये अल्पकाल के लिए मठ महंथ रहे होंगे-ऐसा प्रतीत होता है।
5. राम कृपालभारती- टीकमभारती के बाद राम कृपाल भारती को मठ महंथ बनाया गया। रामकृपाल भारती ने काफी ख्याति अर्जित की। उनके  आठ शिष्य हुए। प्रथम पांच हिंसक प्रवृति के और दुश्चरित्र थे। अतः रामकृपाल भारती के उन पांचों को मठ से निकाल दिया। उसके  बाद उनके तीन अन्य शिष्य - महापत भारती, रामचरण भारती और राम टहल भारती बचे। जब राम कृपालभारती काफी बूढ़े हो गए तो उन्होंने सभी ग्रामीणों को बुलाकर कहा कि अब हम कब हैं, नहीं हैं, कुछ ठीक नहीं है। प्रभु का कब बुलावा आ जाये। अतः अब मठ महंथ का चुनाव कर ही लिया जाय। लोगों ने उन्हे ही महंथ चुनने को कहा। उनके  चुने गए महंथ के नाम को ही मानने का सबने आश्वासन दिया। उन्होंने ब्राह्मण कुल में जन्मे रामचरण भारती का नाम प्रस्तावित किया। सभी लोगों ने अपनी सहमति दी लेकिन कुछ लोगों ने विरोध  भी किया। वस्तुतः कुछ लोग महापत भारती को महंथ बनाना चाहते थे। श्री कुंजविहारी सिंह महापत भारती के समर्थक थे। अतः उन्होंने रामकृपाल भारती के फैसले का विरोध किया। फलतः उन्हे रामकृपाल भारती का कोपभाजन बनना पड़ा। वर्तमान में किशोरी शर्मा कुंजबिहारी सिंह के परिवार के हैं।
श्री रामचरण भारती- श्री कृपाल भारती के बाद श्री रामचरण भारती मठाधीश  बने। रामटहल भारती को कोठारी बना दिया गया। कोठारी भंडार घर के प्रबंध कर्ता  को कहा जाता है। महापद भारती को भोजा मठ का महंथ नियुक्त कर दिया गया। भोजा में भी दुलारपुर मठ की काफी जमीन थी। महापदभारती लंगड़ा थे परंतु शरीर पहलवानों जैसा था। लोग उन्हें पहलवान महंथ भी कहते थे। चूंकि महापद भारती रामकृपाल भारती के शिष्य थे। अतः महापद भारती के पिता राम कृपालभारती से अन्न-राशन मांगा करते थे। मठ दानाश्रम तो था ही, दान पुण्य के काफी कार्य होते थे। 

एक बार की बात है। महापद भारती के पिता रामचरण भारती से पूर्व महंथ श्री राम कृपाल भारती की तरह ही कुछ अन्न-दान  की  याचना की। चूँकि
महंथ चुनाव के समय महापद भारती के कारण ही रामचरण भारती के नाम का विरोध हुआ। अतः दोनों महंथ यथा रामचरण भारती एवं भोजा के महंथ महापद भारती के बीच मधुर  संबंध नहीं थे। लगता है कि इसी कारण से रामचरण भारती ने महापद भारती के  पिता के  मांगने पर भी अन्न नहीं दिया और उन्हें भला-बुरा कहा और कह  दिया कि - चले
आये हैं । मांगने जैसे उपजाकर रख गये हैं । जाइये यह भीखमंगी हमारे यहाँ मत कीजिये, मांगना भी तो महापद से मांगने भोजा चले जाइये। महापद भारती के पिता तत्काल तो वहाँ से चले गये परंतु इस छोटी-सी घटना ने  दुलारपुर मठ के इतिहास को रक्तरंजित कर दिया।
जब महापद भारती के पिता भोजा जाकर अपने पुत्र महंथ को अपने साथ किये गये बर्ताव से अवगत कराया तो महापद भारती आग-बबूला हो गये। महापद भारती तुरन्त भोजा से (कसहा) मठ की ओर प्रस्थान कर गये। दुलारपुर मठ आकर उन्होंने बलपूर्वक  रामचरण भारती को पदच्युत कर दिया और रामटहल भारती ( कोठार))  को महंथ बना दिया।

हालाँकि राम टहल भारती महंथ बनने में  आनाकानी कर रहे थे, तुरंत वे इस बात के लिए तैयार नहीं हुए थे। चूँकि रामचरण भारती को महंथ गांव के लोगों ने बनाया था। अतः गांव के अधिकांश  लोग रामचरण भारती के पक्षधर  हो गये। कुछ विरोधी  भी थे, जो महापद भारती के  पक्षधर हो गये। और  महापद भारती खेमे में जा मिले। इस प्रकार गांव के लोग भी दो खेमों में विभक्त हो गये। एक पक्ष रामचरण भारती के पक्ष तो दूसरा नाम  रामटहल भारती के पक्ष में। रामटहल भारती की तरफ गांव के प्रमुख जमींदार मोती सिंह  भी थे। मोती सिंह 51पट्टी के थे। अतः लगभग सम्पूर्ण 51पट्टी उनकी तरफ ही होगा, ऐसा माना जा सकता है। रामचरण भारती की  तरफ 80 और 32 पट्टी था। दोनों तरफ से  शीतयुद्ध  होने लगा, फौजकशी भी प्रारंभ हो गयी। 51 पट्टी के मोती सिंह ने नौनपुर के अधम सिंह ( राजपूत ) को रामचरण भारती की तरफ से युद्ध  करने के लिये बुलाया। कहा जाता है कि  अधम  सिंह ने इस लड़ाई में लड़ने का 1000.00 लिया था। 80 और 32 पट्टी की ओर से मधुरापुर  के रामभरोसी खलीफा एवं उनके  अन्य सात लठैत भाइयों को रामटहल भारती की ओर से लड़ाई में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। जब अधम सिंह नौनपुर से चलने लगा तो वह अपना  तलवार लेने लगा क्योंकि वह एक प्रख्यात तलवार बाज था। परंतु मोती सिंह ने उसे यह कहकर तलवार लेने से रोक दिया कि बात लाठी से आगे  नहीं जायेगी। अतः तलवार की कोई आवश्यकता नहीं । दोनों तरफ के युयुत्सु वीर आमने सामने हुए, घमासान  लड़ाई हुई । अन्ततः अधम सिंह अकेला उन आठों भाइयों से जा भिड़ा   उन आठों भाइयों ने तलवार-युद्ध  प्रारंभ कर दिया। एक जबरदस्त बार उसके  गर्दन पर किया गया परंतु  बचाव करने के बाबजूद  तलवार उसके  नागोद से जा टकरायी। अधम  सिंह फुरती से उनके  वार को खाली करता गया। कहा जाता है कि तलवार की एक बार से अधम सिंह का नाक कट गया, उसके बावजूद वह अपना बचाव करते हुए भागने में सफल हो गया। उस लड़ाई में 80 और 32 पट्टी की ही विजय हुई, पुनः रामचरण भारती ही महंथ बने और रामटहल कोठारी। लेकिन होनी होके ही रहती है।
51 पट्टी के मोती 1400 बीघा जमीन दियारा में और 300 बीघा वर्तमान के नयानगर-ताजपुर आधार पुर क्षेत्र में, के मालिक थे। एक दिन  लगभग दस बारह आदमी दियारा जा रहे थे। पास के ही किसी खेत में 80 पट्टी के  कुछ आदमी थे। उन्होंने जब मोती सिंह को जाते देखा तो  व्यंग्य किया कि - देखा जी, कैसे नाक कटी जमींदार साहब की। रामचरण भारती से टकराने का अंजाम देख लिया ना। 
इस व्यंग्य का असंर मोती सिंह पर इतना अधिक पड़ा कि उन्होंनेराम  चरण भारती को अपदस्थ करने के लिए पुनः अधम सिंह  से सम्पर्क स्थापित किया।  अधम सिंह  ने शर्त दी कि आप पहले मधुरापुर  वाले आठो भाइयों को या तो अपनी  तरफ मिला लीजिये या उनकी तरफ नहीं आने पर राजी कर लीजिए, तब मैं जा सकता हूँ।  मोती सिंह ने रामटहल भारती और महापद्भारती से मिलकर योजना बनाना प्रारंभ कर दिया। वे  मधुरापुर  भी गये। पहले तो उन आठ भाइयों  ने आना-कानी की, परंतु मोती सिंह की लक्ष्मी के सामने वे सभी परास्त हो गये। मोती सिंह उन्हें मुँहमाँगी रकम देने को तैयार थे। उन आठों ने विचार करके  कहा कि देखिये मोती बाबू- अगर आपके  रामटहल भारती महंथ बन गये तो हमें सुल्तानपुर से सेउनार मंदिर के बीच 200 बीघा जमीन और 5000.00 रूपया देना पड़ेगा. यह सारी   जमीन मठ को ही देना पड़ता क्योंकि मठ का काफी जमीन इस क्षेत्र में था। पुनः लड़ाई हुई । इस एकाएक हुए लड़ाई में 80 और 32 पट्टी को संगठित होने का मौका नहीं मिल सका। उनकी तरफ से वैसा कोई नामी-गिरामी लड़ाका  नहीं था। उन लोगों  ने जिसके बल पर अपनी प्रथम लड़ाई जीती थी, आज वह भी उनके विरूद्ध  ही था। अतः एकतरफा लड़ाई हुई । 80 और 32 पट्टी की तरफ से कुछ जांबाज लोगों ने लड़ाई में भाग लिया। तरन्तु वे टिक न सके। 

लड़ाई  का बहुत ही नाकिस परिणाम निकला। 80 और 32 पट्टी या रामचरण भारती पक्ष के तीन लोगों की मृत्यु तुरन्त हो गई, और कुछ अन्य जख्मी हो गये। बात बिगड़ गई थी। अतः अधम सिंह और आठ मधुरापुर के लठैतों ने विचार किया कि तीन-तीन खून हो गया। अतः अब जमीन क्या मिलेगा।
इससे अच्छा चलो  मठ के खजाने को ही लूट लिया जाय, जो ही मिल जाय। सबों के मठ पर धावा बोल दिया। उनका मामूली विरोध हुआ फिर  भी वे मठ लूटने में सफल हो गये। उन लोगों ने जी भरकर लूट-पाट की और सोना- चाँदी, हीरा आदि बहुमूल्य चीजें लूट ली। पुलिस भी आयी, परंतु वे लोग भागने में सफल हो गये। तीन मृतकों  में एक वर्तमान विसौआ  (भुल्लु), रामदेव के घर के और दो आधारपुर के थे।
6. श्री रामटहलभारती- जब मामला शांत हुआ तब श्री रामटहल भारती महंथ बने। मृतक परिवार के लोगों को मठ में ही नौकरी दी गई। जो परम्परा अभी तक चल रही  है। रामटहल भारती केवल तीन वर्ष तक महंथ रहे।
7. श्री चतुर्भुज भारती- रामटहल भारती के निधन  के बाद उनके  शिष्य श्री चतुर्भुज  भारती मठ के महंथ बने। चतुर्भुज  भारती के समय में ही दुलारपुर में राधेदासजी नाम के महात्मा आये थे।  चतुर्भुज  भारती के समय में मठ का काफी विकास हुआ।  चतुर्भुज  भारती के अपने व्यक्तित्व, ज्ञान एवं उदारनीति रूपी मरहम से पिछले सारे घावों को भर दिया था। उनके समय मठ की आमदनी का एक बड़ा स्रोत नाव की चुंगी  वसूलना था। गंगा नदी का ठेका मठ को ही प्राप्त था। मठ के साथ-साथ गाँव काफी खुशहाल था। परंतु मनुष्य तो प्रकृति का दास है। 1879 ई॰ के कटाव में मठ का आलीशान भवन, ऊँचे -ऊँचे  विशाल मंदिर कटकर गिर गये कहा जाता है कि चाँदी  के रूपयों से भरी कलशी कटाव में गिरती थी तो झन झन की आवाज होती थी। इस तरह 1879 ई0 का कटाव काफी त्रासदपूर्ण था। उस कटाव के बाद ही दुलारपुर मठ को  श्री  चतुर्भुज  भारती द्वारा वर्तमान स्थान  पर लाया गया। मठ का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।
8. श्री गुरु  चरण भारती- चतुर्भुज  भारती के शिष्य श्री गुरु चरण भारती को मठ महंथ बनाया गया।  गुरु चरण  भारती काफी सिद्ध पुरुष एवं  साधक थे । परतु वे आंख से काना थे। उनके  समय से ही वर्तमान मठ का निर्माण विशाल पैमाने पर किया गया। विशाल एवं  भव्य मंदिर बनाया गया। वे तंत्र विद्या  के भी अच्छे ज्ञाता थे। 

एक बार की बात है। एक अन्य महंथ उनसे मिलने मठ में आया। वह परिपाटी का उल्लंघन करते हुए अपना खड़ाऊ  पहने ही भीतर मठ के प्रांगण में चला गया। जब खड़ाऊ खोलकर वे अपनी आसनी पर बैठे तो  गुरु चरण  भारती ने अपने तंत्र विद्या से दोनों खड़ाऊ को दो कबूतर बनाकर उड़ा दिया। आसनी उस आगंतुक महंथ के शरीर से चिपक गई। जब उसने उनसे माफी मांगी तब जाकर आसनी उनके शरीर से अलग हुआ   गुरु चरण  भारती ने अपना शिष्य भयकरण को बनाया, जिसे वे अगला महंथ बनाना चाहते थे। परंतु वह महंथ बनना ही नहीं चाहता था। अतः गाँव के लोगों ने उनसे यह लिखवा कर कि मै महंथ नहीं बनना चाहता हूँ जिला मुख्यालय मुंगेर  में जमा करवा दिया।  वह कोठारी ही बनाना चाहता था।
9. श्री प्रभुचरण भारती- श्री  गुरु चरण भारती की अचानक मृत्यु के बाद उनके  शिष्य प्रभुचरण भारती को महंथ बनाया गया। कहा जाता है कि किसी ने उन्हें विष दे दिया था। जिसके  कारण उनकी मृत्यु हुई थी। प्रभु चरण भारती काफी व्यक्तित्व वाले महंथ थे। उन्होंने मठ के बाहर अपने रहने के लिए एक अलग मकान बनवाया। सौ-दो सौ संन्यासी हर समय मठ में रहा करते थे। 12 बजे दिन और 12 बजे रात में भंडारा होता था। मठ में लगभग सौ सिपाही नियुक्त था। महंथ जी ने मिलने आये अंग्रेज  सरकार के बड़े-बड़े अधिकारियों को भी काफी इन्तजार करना पड़ता है। बिहार के  प्रथम मुख्यमंत्री  श्री कृष्ण  सिंह को भी महंथ जी से भेंट  करने के लिए तीन घंटे तक इंतजार करना पड़ा था। प्रतिदिन 12 मन अन्न दान किया जाता था। मठ के चारों तरफ मठ की रैयत बसी थी। प्रभुचरण भारती अपनी दानशीलता के लिए चर्चित थे । भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डा. राजेन्द्र  प्रसाद का आगमन दुलारपुर मठ में  हुआ। प्रभुचरण भारती ने 5000 रूपए चंदे में दिए थे ।
उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण में भी चंदा दिया था। सुलतानगंज से आगे देवघर  के रास्ते में प्रभुचरण भारती के नाम पर एक मध्य विद्यालय  उनकी दानशीलता को दिखाता है। वैशाली जिला के चेयर गाँव में उन्होंने एक पुस्तकालय खोला। धर्मदा  ने उन्हें धर्मं मनीषी की उपाधि से  विभूषित किया। वे संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे । 
10. श्री शिवचरण भारती- श्री प्रभुचरण भारती ने अपना शिष्य, अपने भतीजे भी शिवचरण भारती (डीहा निवासी ) को बनाया। जो 1945 ई॰ में दुलारपुर मठ के महंथ बने। श्री शिव चरण भारती ने पूर्व महंथ की स्मृति में  मठ परिसर के बगल में ही श्री प्रभुचरण मध्य विद्यालय दुलारपुर मठ की स्थापना 1948 ई॰ में की।
11. श्री हरिहर चरण भारती- शिवचरण भारती के बाद श्री हरिहरचरण भारती 4 जून 1966 को दुलारपुर के महंथ बने। इनका देहांत 25 जनवरी 2020 को हो गया।

महंथ श्री हरिहर चरण भारती (बाएं से) श्री प्रणव भारती (बीच में उजले शर्ट में), 
श्री गिरिराज सिंह( दायें से) 

12. श्री प्रणव भारती- महंथ श्री हरिहरचरण भारती के ब्रह्मलीन होने के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री प्रणव भारती को दुलारपुर के सम्मानित जनों द्वारा 7 फरवरी 2020 को दुलारपुर मठ का महंथ बनाया गया। 

दुलारपुर मठ महंथ श्री प्रणव भारती जी 

दुलारपुर मठ के दान देने वालों की सूची
दाता का नाम                   दान प्राप्त कर्ता      दान स्वरूप                        वर्ष (ई॰)में
1. श्री रघुनन्दन हरि सिंह  राजेन्द्र भारती   4 बीघा जमीन         1746 ई॰ एवम् अन्य ;सुल्तानपुर घाट होद्ध
2. महाराज श्री नरेन्द्र सिंह ,भगवान पुर    श्री हंस भारती                   भेजा में 51 बीघा जमीन 1754 ई॰
3. महाराज श्री हिम्मत सिंह, खजूरी      महंथ श्री हंसराज भारती            खजूरी में 24 बीघा जमीन 1760 ई॰
4. श्री चैध्री गुलाम अली      श्री हंसराज भारती    रसूलपूर मकदूम 1760 ई॰ महराजी दियारा  51बीघा जमीन
5. महाराज श्री प्रताप सिंह  महंथ श्री हंसराज भारती रूसेरा में        51;51द्ध 1761 ई॰ बीघा जमीन
6. महाराज श्री प्रताप सिंह ;बहादुर    महंथ श्री हंसराज भारती              भेजा में 30 बीघा जमीन 1769 ई॰
7. महाराज श्री नवनिध् सिंह ;भेजा       बेचूदास और बाद में सुराहा में 7 बीघा जमीन 1782 ई॰ श्री हंसराज
8. महाराज श्री नवनिध् सिंह ;भेजा  भारती को स्थानान्तरित 5 बीघा 1783 ई॰
9. श्री सबूरी राय एवं अन्य             श्री हंसराज भारती                     रूपसबाज में 5 बीघा 1790 ई॰ जमीन
10. श्री सर्वजीत सिंह एवं उमराव सिंह   संह श्री मणिराम भारती मुसापुर और मानिकपुर 1792 ई॰ में 200बीघा
11. श्री उमराव सिंह बेचदास एवं उनसे   5 बीघा जमीन 1794 ई॰
12. राजा नवनिध् सिंह श्री हंसराज भारती 5 बीध जमीन               1702 ई॰ कुल जमीन
                                                                                                 401 बीघा जमीन
दुलारपुर मठ  के कचहरी का भग्नावशेष


Jan 23, 2012

दुलारपुर दर्शन -4 (गंगा का कटाव और दुलारपुर)


दुलारपुर के विकास की कहानी 

जैसा कि आपने पिछले पोस्ट में पढ़ा कि दुलार राय के मरणोपरान्त पंडित चिन्मय मिश्र (अपभ्रंशित नाम चुनमुन्नी मिश्र) को उनकी सारी जमीन-जायदाद मिली। दुलार राय की स्मृति में ही दुलारपुर नाम रक्खा गया। ज्ञातव्य है कि दुलार राय काफी  धनी-मानी व्यक्ति थे। प्रत्येक समृद्ध  एवं सम्पन्न लोगों के बड़े कारोबार को देखने चलाने के लिये कारिन्दे या मैनेजर होते हैं। दुलार राय के यहाँ भी ढेऊरानी रहता था। सीमान पर देखभाल के लिये उनको पश्चिम से जमीन दिया गया। वही उनके  कारबार की देख-रेख करता था। सभी लोग ढेऊरानी को ही दुलार राय का उत्तराधिकारी मानते थे। परन्तु दुलार राय ने अपनी सारी सम्पत्ति पंडित चिन्मय मिश्र के नाम पर कर दी। ढेऊरानी दबंग एवं नामी पहलवान था। दुलार राय की मृत्यु के बाद ढेऊरानी ने मिश्र जी से अपना हिस्सा मांगा। मिश्र जी सीधे -साधे  व्यक्ति थे। अतः उन्होंने आधा  हिस्सा ढेऊरानी को दे दिया।

ढेऊरानी के वंशज 


ढेऊरानी को दो पुत्र हुए। पहले बेटे  को कई पुत्र थे परंतु दूसरे को सिर्फ एक बेटी थी।  ढेऊरानी की जायदाद का आधा-आधा  हिस्सा दोनों पुत्रों  को मिला। कालान्तर में  ढेऊरानी के पोते की सारी जमीन या तो बिक गयी अथवा नीलाम हो गई। लेकिन उसके पोती की जमीन बची रही, किसी कारणवश नीलाम नहीं हो सकी। उसकी पोती का परिवार यहीं बस गया और उन्हीं का वंशज हरिअमैय कहलाया। वर्तमान आधारपुर में  ढेऊरानी का ही वंशानुक्रम  है।


इधर  समय के बदलते आयाम में पंडित चिन्मय मिश्र की वंश परम्परा आगे बढ़ी, जिनके नामों की सही जानकारी अनुपलब्ध  है। ऐसे जनश्रुति  है कि गाँव में युवकों की वर्तमान पीढ़ी पंडित चिन्मय मिश्र के वंश का बीसवां पीढ़ी है। कहा जाता है कि कई पीढ़ी के बाद पंडित चिन्मय मिश्र के वंश के एक मात्र चिराग प्रेमनारायण सिंह बचे। कालक्रम में उपनाम मिश्र से बदलकर राय और पुनः सिंह हो गया। प्रेमनारायण सिंह की दो शादी हुई थी- एक चगाजी में और दूसरी जगतपुरा में।

चगाजीवाली पत्नी से दो पुत्र हुए-
1. हरिनारायण सिंह- जिनका उपनाम बाद में सिंह के बदलकर चौधरी हो गया। किंवदन्ती है कि  चौधरी उपनाम मुस्लिम शासकों ने हरिनारायण सिंह को जैठरेयती में दी थी। ऐसे में इस सन्दर्भ में एक अन्य जनश्रुति भी है, जिनकी चर्चा आगे की जायेगी।

2. शिवनारायण सिंह
हरिनारायण सिंह एवं शिवनारायण सिंह के परिवारजनों को मिलाकर 51 पट्टी बना जो अभी भी प्रचलित है ।

जगतपुरा वाली पत्नी से भी प्रेमनारायण सिंह को दो पुत्र हुए। 
1. बल्लमी सिंह- जिनसे 80  पट्टी बना परंतु कालांतर में बल्लमी सिंह के पुत्रों में आपसी सामंजस्य के अभाव के कारण इसी से टूटकर 38 पट्टी बना। 38  पट्टी वालों का हिस्सा पश्चिम से हुआ। अतः लोग इन्हें पछियारी कहने लगे।

2 . धूर्वा सिंह - जिनसे 32  (बत्तीस) पट्टी बना।  
पट्टी  निर्माण के सम्बन्ध  में एक जनश्रुति यह है कि जिसको जितने जोड़ी हल बैल थे, उनसे उतनी संख्या की पट्टी बनी। इसका तात्पर्य यह कि हरिनारायण सिंह एवं शिवनारायण सिंह को संयुक्त रूप से 51  जोड़ी, बल्लमी सिंह को 38 जोड़ी एवं धूर्वा सिंह को 32  जोड़ी हल - बैल  रहे होंगे।

इस प्रकार गाँव के विकास का रथ आगे बढ़ना शुरू किया। उन दिनों गाँव नदी के पूर्वी किनारे पर टेनियल नामक जगह पर बसा था। यहीं बाबा योगभारती का पर्दापण हुआ था तथा दुलारपुर मठ की स्थापना हुई थी। गंगा के कटाव की मार दुलारपुर को कई बार झेलनी  पड़ी है। गंगा द्वारा कटाव इस गांव के विकास में अवरोध  का प्रमुख कारण रहा है। रवीन्द्र कुमार का जातिवाद एवं सामाजिक प्रगति नामक शोध प्रबंध, जो प्रो॰ मन्सूर आजम  के निदेशन में हुआ, के अनुसार दुलारपुर में 1802  ई॰ में कटाव हुआ। टेनियल पर बसा गाँव विस्थापित होकर महाराजी  एवं अलग-बगल की अन्य जगहों पर आकर बस गया।

उन दिनों गाँव में दो टोला था। पूवारी और पछियारी। पछियारी टोला के बाद शिवमंगलमोची का टोला था। सीमान पर टहल दुसाध् का टोला था। पूवारी टोला में मोती सिंह का वास था। रामपुर गोपी या ‘बिचली’ में दुलारपुर मठ था। वर्तमान का ताजपुर, मठ के बाद बसा था।  ताजपुर, दुलारपुर मठ का रैयत था। पूबारी  टोला के मोती सिंह काफी धनी व्यक्ति थे। कहा जाता है कि वे 1400 बीघा जमीन के मालिक थे। उन्हें काफी  माल-मवेशी था, जिनके  गले या पैर में रस्सी नहीं लगती थी। 


एक बार की बात है। गंगा नदी में भयंकर बाढ़ आयी, जिसके  कारण मोती सिंह के मवेशियों को खगड़िया से पूरब फरकीया की ओर ले जाया गया। बहुत मवेशी होने के कारण वहाँ के किसानों को काफी  क्षति उठानी पड़ी, अतः दूसरी बार से वहाँ के कृषक समुदाय 300 बीघा जमीन में खेसारी छींटकर मोती सिंह के मवेशियों के लिये छोड़ देते थे। उस समय गाँव काफी खुशहाल हो गया था। 

समस्तीपुर में आयोजित एक दिवसीय विचार गोष्ठी जिसमें  हिस्टरी ऑफ़ चकवार बिषय  पर विचार व्यक्त करते हुए विश्वविख्यात इतिहासकार प्रो॰ रामशरण शर्मा ने कहा कि 1802  ई॰ से पहले दुलारपुर गांव में ही मउ बाजार पड़ता था। वहीं बाजार के बगल में ही दूर्गापूजा काफी धूमधाम से मनायी जाती थी। इस अवसर पर गाँव में सांस्कृतिक आयोजन (नाटक, भजन आदि) भी किया जाता था कटाव के बाद यही दुलारपुर बाजार वर्तमान के मउ बाजार के रूप में पुन:स्थापित हो गया। नयानगर और आधारपुर के मध्य अवस्थित प्राचीन  काली मंदिर इस बात की पुष्टि करता है कि दुलारपुर के लोग शक्ति के उपासक रहे होंगे। 

दुलारपुर का कटाव और संत राघोदास 


पुनः 1850  के दशक में गंगा में  कटाव प्रारंभ हो गया और बसे हुए गांव के समीप आ गया। उसी समय गांव में राघो दास नाम के सिद्ध  महात्मा का आगमन हुआ। कटाव के भय से भयभीत लोगों  की दशा देखकर संत हृदय द्रवित हो गया।

उन्होंने कहा- हम जैसा कहें, अगर आप लोग वैसा कर मेरी मदद करें तो गंगा भैया को मना लूँगा और कटाव अवश्य रूक जायेगा। डूबते को तिनके  का सहारा मिला। लोगों ने उनके  कथनानुसार पूजा-पाठ की सारी सामग्री जुटा दी। विशुद्ध खीर बनाई गई और पूजा की सारी तैयारी कर ली गई। वे पूजा-स्थल यानि कटाव स्थल पर जाने से पहले ही एक  शर्त  रख चुके  थे कि अगर कटाव रुक गया तो उन्हें ठाकुरवाड़ी एवं भोग सामग्री का इंतजाम गाँव वालों को करना पड़ता। कटाव का भय था। अतः सबों ने उनकी ये शर्त मान ली। पूजा प्रारंभ हुई। 


जनश्रुति  है कि वे एक थाल में खीर, अक्षत, फूल  नैवेध् आदि पूजा सामग्री लेकर गंगा की तेज धार  में प्रवेश कर गये और कई ग्रामीणों को किनारे पर इंतजार करने को कहा। काफी समय उपरान्त जब वे पानी से वापस नहीं आये तो लोगों ने समझ लिया कि गया महात्मा काम से। वे बेचारा अब तक तो कहाँ से कहाँ जलधार  के साथ बह गया होगा। परन्तु काफी देर के बाद राघोदास गंगा से बाहर आये। उनके  हाथ में खाली थाल था। जब वे गाँव आये तो लोगों ने काफी आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा- गंगा माँ मान गई है। जमीन पर एक लकड़ी गाड़ते हुए कहा कि अब कटाव इससे आगे नहीं बढेगा वस्तुत: कटाव रुक  गया। 

लोगों ने गंगा के कछार पर ही राघो दास को जमीन आश्रम बनाने के लिये यह सोचकर दी कि अगर कभी पुनः कटाव हुआ तो पहले महात्मा की कुटिया की कटकर गिरेगी। गाँव से उन्हें मनपौवा मिलने लगा। आश्रम के साथ-साथ गाँव भी खुशहाल हो गया। राघोदास जी ने सोलह कोठरी की ठाकुरवाड़ी बनवा दी। गंगा ने मिट्टी जमाकर खेती योग्य काफी जमीन बना दी। वे लगभग पच्चीस वर्षों तक यहाँ रहे। एक दिन राघोदास  ठाकुरवाड़ी के लिये निर्धारित  मनपौवा माँगने के लिये सबेरे  पहर ही घूम रहे थे।

गाँव में एक व्यक्ति रीतलाल सिंह थे। वे काफी सुखी सम्पन्न थे। राघोदास गांव में मांगते-घूमते लगभग नौ बजे रीतलाल सिंह के यहाँ पहुंचे। वे उस समय अपनी छप्पर पर खड़े थे। उनको दस खपरैल घर था। जिसके  औछावन का काम मजदूर लोग कर रहे थे तथा वे उसका मुआयना कर रहे थे। राघोदास ने उनसे कहा- अरे ओ रीतलाल! तुम्हारे यहां से अभी तक मनपौवा नहीं पहुंचा है। बेटा जरा भिजवा देना। बूढ़े हो गये हैं। चला फिरा  नहीं जाता इसलिये इतना तो तुम्हें करना ही होगा। इस पर रीतलाल सिंह ने छप्पर पर से ही जबाब दिया - अरे महात्मा जी, आप भी सवेरे-सेवरे यहां आकर कौआ की तरह कांव-कांव करने लगते हैं। जाइये भिजवा दूगाँ। 


महात्मा को इस बात से काफी कष्ट  हुआ। बोले- जब गंगा को लौटाना था तो हाथ जोड़े खड़ा रहते थे। और आज राघोदास कौआ हो गया। इसका  फल बहुत खराब  होगा। कहा जाता है उसके  तीन दिन बाद ही राघोदास की मृत्यु हो गई। सभी लोग उन्हें ‘महाराजी’ से आगे अंतिम संस्कार के रूप में गंगा में डूबाकर लौटे थे कि कटाव शुरू हो गया। 

1879  ई॰ का यह कटाव काफी त्रासदीपूर्ण था। कहा जाता है कि पाँच दिन में गंगा कटाव करती हुई दुलारपुर गाँव में घुस गयी। किसी को घर  से भी कुछ निकालने का अवसर न मिला। मवेशी बंधन  तोड़कर भागने लगे। घर -द्वार, मठ-ठाकुरबाड़ी सब एक दिन में ही कट गया। पलभर में गांव कंगाल हो गया। 
1879 - 80   का कटाव इतना भीषण था कि गंगा की मुख्य धारा बाया नदी के पास बहती थी। पूरा दियारा कटाव की चपेट में आ गया था। इस भीषण कटाव के कारण यहाँ के लोगों को पुनर्वास की समस्या थी। उस समय दुलारपुर मठ (दुलारपुर स्टेट) की जमीदारी चारों तरफ फैली हुई थी। ढेऊरानी, हरिअम्मैय, भरद्वाजी तथा अन्य वर्ग के प्रतिष्ठित लोगों ने एक साथ मिल बैठकर विचार किया कि अब अपने को कहाँ बसाया जाय? ढेऊरानी - हरिअम्मैय एकमत होकर दुलारपुर स्टेट की जमींदारी में बसने को तैयार हो गये लेकिन उस समय भरद्वाजी मोती सिंह के नेतृत्व में यह निर्णय लिया गया कि हमलोग संन्यासी की जमीन पर नहीं बसेंगे, यानि हम रैयताना कबूल नहीं करेंगे। उनका यह तर्क था कि जिस दुलारपुर स्टेट में नये महंथ को हमलोग पगड़ी देते हैं, उसके  अधीन नहीं रहेंगे। उसी समय वर्तमान में नयानगर से दक्षिण पूर्व जो कटहरी के नाम से जाना जाता है,  में नील की खेती होती थी और नयानगर के उत्तर-पश्चिम में स्थित सोंता जो नोन  के नाम से पुकारा जाता है, में नील की धुलाई  की जाती थी। उस समय मार्शल नाम का अंग्रेज  ‘अयोध्या अंग्रेज  कोठी’ का कोठीवाल था। उसी की देखरेख में नील की खेती होती थी। उस समय श्री  मोती सिंह ने 300 बीघा जमीन कोठी से तत्काल लीज पर लेकर नयानगर नाम से सूर्यमण्डलाकार टोला बसाया था। 

तोखन सिंह का  टोला भी  बस गया, जिसमें तिलकधारी सिंह, हरख सिंह एवं द्वारिका सिंह का परिवार प्रमुख था। दुलारपुर मठ भी इसी कटाव के बाद श्री चतुर्भुज भारती द्वारा वर्तमान स्थान पर लाया गया। दुलारपुर का रैयत भी यहाँ आकर चकमुन्नी, चकअमला,  चकायम, चकनायत, वाजितपुर तथा फतेहपुर आदि जगहों में बस गया। इसलिए आज भी उनको दुलारपुर के वासी और लोग के रूप में देखा जाता है

1879 - 80   का कटाव काफी भीषण था। परंतु जिस समय ने उन्हें घर से बेघर  किया, भुखमरी की स्थिति ला दी, उसी ने उन्हें पुनः रोटी दी। तात्पर्य यह है कि 1887 - 88 में सम्पूर्ण दियारा पुनः आबाद हो गया। चूँकि वर्तमान जगह में अधिकांश लोगों को काफी कम जमीन थी। अतः गांव का पलायन फिर से दियारा होने लगा। परंतु जिन लोगों को गांव में अधिक  जमीन थी, वे यहीं बसे रह गये। जिसमें कुछ परिवार नयानगर में, कुछ तोखन सिंह टोला में, तथा कुछ आधारपुर में बसे रहे गये। इस प्रकार लगभग 95 प्रतिशत लोग दियारा चले गये। 

उसके  बाद भी दियारा में कई छोटी-छोटी कटाव का सामना लोगों को करना पड़ा। इस गांव को कटाव की मार काफी झेलनी पड़ी। कहा जाता है कि दियारा में भी लोग घुम- घुमकर बसते थे। पहले महराजी में थे, कटाव हुआ तो वहाँ से अलग-अलग बस गये। महाराजी के बाद दियारा में भूमिहार लोगों का मुख्यतः दो  टोला था- धनिक लाल सिंह एवं पत्तीराय सिंह टोला। धनिकलाल सिंह टोला के पश्चिमोत्तर गोविन्द दास पुर टोला था। इस टोला में दुसाध  जाति के लोग थे। गोविन्ददासपुर के बाद नेपाल में  एक टोला था जिसमें यमुना सिंह वगैरह का वास था। उसके  पश्चिम रतुलहपुर में दुसाध टोला था एवं अंत में संतलाल सिंह का खपरैल का बहुत बड़ा डेरा था। बत्तीस में हरख सिंह, द्वारिका सिंह के परिवार का डेरा था। उसके  बाद समसीपुर दियारा प्रारंभ हो गया था। पूरब में  पत्तीराय टोला था  इस टोला का सभी घर एक पंक्ति में था। किसी का भी घर आगे पीछे नहीं था। आगे में सड़क था। यह दक्षिण से उत्तर एक सीध में बसा होता था और आगे में सड़क के बाद एक ढ़ाव था जो प्राकृतिक दृष्टि से काफी मनोरम प्रतीत होता था। टोला के उत्तर में प्राथमिक और मध्य विद्यालय था। स्कूल से सटा नवयुग पुस्तकालय था। स्कूल से उत्तर नरहन स्टेट की कचहरी थी और कचहरी के बाद एक बड़ा जलाशय था, जो दोनों टोला को विभक्त करता था। स्कूल से पूरब दोनों टोला का विभाजक मोहर बाबा का विशाल वटवृक्ष था, जो 1955 - 56  के कटाव में गिर गया। पत्तीराय टोला को लोग सिरहीवाली जमीन भी कहते हैं। 1952  ई॰ के पूर्व से ही पत्ती राय सिंह टोला कटाव में गिरना शुरू हो गया। तब इस टोला के लोग धनिक लाल सिंह टोला में जाकर पश्चिम से बसने लगे। 1955 - 56 ई॰ पुनः जब पश्चिम से लोगों का घर गिरने लगा। तब कुछ लोग 40  बीघवा में जाकर बस गए। कुछ लोग धनिककाल सिंह टोला के उत्तर जाकर झगड़ालू  (विवादित)  जमीन पर बस गये। अतः लोग उन्हें झगरहुआ टोला कहने लगे। 1955 - 56  ई॰ के कटाव के बाद अधिकांश लोग वर्तमान स्थान में चले आये। गाँव में पुनर्वास की समस्या उत्पन्न हो गई। वर्तमान जगह में पहले से रह रहे लोगों ने किसी तरह से आपस में जमीन का आदान-प्रदान कर गाँव के लोगों को बसने में मदद की। 40   बीघवा में बसे लोग 1962  ई॰ में तथा झगरहुआ में बसे लोग  1964   ई॰ में यहाँ आकर बस गये।


इस प्रकार दुलारपुर गाँव राष्ट्रीय राजपथ-28 पर बसा गाँव हैं। तेघड़ा और बछवाड़ा के बीच, गंगा के दुकूल में बसा यह गाँव अब काफी खुशहाल है। गंगा की उपजाऊ  मिट्टी में खेतीकर यहाँ के लोग काफी अन्न पैदा कर लेते हैं। इस गांव में ऊँची - नीची सभी प्रकार की जातियों  का समन्वय है।

इस तरह हम पाते है कि गंगा नदी के कटाव के कारण दुलारपुर का विकास काफी अवरूद्ध  हुआ था। किंवदन्ती प्रसिद्ध  है कि अब तक चौदह  बार गंगा के छोटे-बड़े कटाव का सामना दुलारपुर वासी कर चुके  हैं।



स्रोत: सभी पाठकों के मन में यह उत्कंठा होगी कि ऊपर दिए गए तमाम जानकारी का स्रोत क्या है? 

1. सबसे पहले जनश्रुति जिसकी जानकारी हमें श्री विन्देश्वरी चौधरी (विनो बाबा - विशेष और अखिलेश के बाबा); श्री लाल बाबू सिंह, श्री सुबेलाल सिंह अमीन, श्री सच्चिदानंद सिंह शिक्षक, आदि ग्रामीण जन हैं.
2. मैं अपने अंतर्मन से विशेष धन्यवाद श्री उपेन्द्र चौधरी (नरेश बाबा - कर्मचारी ) जी को देना चाहूँगा जो जानकारी के  चलते फिरते भंडार थे. 
3. श्री रविन्द्र कुमार सिंह के शोध प्रबंध (जातिवाद एवं सामाजिक प्रगति)
4. श्री राम सेन सिंह के समाज शास्त्र पर किये गए शोध कार्य 

Jan 21, 2012

दुलारपुर दर्शन - 3 (नामकरण चौहद्दी एवं विस्तार)


प्रलय में बचे मनु शतरूपा से या महाभारत के युद्ध  में कौरव और पाण्डव की सेना के बचे लोगों से, या फिर  डार्विन के विकासवादी सिद्धांत  के अनुसार एककोशीय प्राणी से बहुकोशीय प्राणी फिर  बंदर... मनुष्य। किस प्रकार मनुष्य की उत्पत्ति हुई ? इस परिचर्चा  में हमें नहीं पड़ना है। वर्तमान में भी भूत के अवशेष पुरातत्वविद् प्राप्त कर रहे हैं, विकास की तरह-तरह की क्रमिक पद्धतियों  का ज्ञान हो रहा है।

कहा जाता है- शायद तेरहवीं शताब्दी का पूर्व पाद था।  भाग्य लक्ष्मी हिंदुओं  से रूठकर यवनों के गले में जयमाला पहना चुकी थी। अर्थात  हिन्दुओं के अंतिम सम्राट पृथ्वीराज पर मुहम्मद गोरी विजय पा चुका था। गौरवमयी दिल्ली का पुण्य-स्थल यवनों का क्रीडा  स्थल बन चुका था। उस समय दिल्ली के राज सिंहासन पर मुहम्मद गोरी का एक दास क़ुतुबुद्दीन  ऐबक  विराजमान था। 

दुलारपुर गाँव की प्राचीन भौगोलिक सीमा 


उसी समय पण्डारक से लेकर वर्तमान के राष्ट्रीय राजपथ-28 के करीब तक, सेउनार मंदिर से लेकर रूपसबाज, मउ बाजार (फलाशीशी कोठी ) के बीच लगभग 32000 बीघा जमीन के मालिक दुलारचन्द राय हुआ करते थे। वे इस  क्षेत्र के जमींदार  ही नहीं प्रधान  भी थे। अतः उनका प्रभाव एवं दबदबा था। उनकी अपनी रैयत  थी। उसी समय माधुरी  नाम की एक काफी  समृद्ध  महिला भी थी। जनश्रुति  है कि वर्तमान का मधुरापुर  गांव माधुरी के नाम पर ही बना है। दुलार राय काफी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। ऐसे भी पुराने लोग धर्म  के प्रति काफी आस्थावान होते थे ।

जैसा कि हम लोग जानते हैं  कि उत्तरी मिथिलांचल यथा तिरहुत निवासी आध्यामिक धार्मिक  व्यक्ति होते हैं। विद्यापति (1368-1475 ) के बाद से इस क्षेत्र के लोगों में गंगा तट की सेवा की भावना काफी  विकसित हुई है। इस क्षेत्र के विद्वान अपनी विद्वता के लिए प्रख्यात रहे  हैं। ऐबक के शासन के बावजूद मिथिला की पवित्र भूमि अक्षुण्ण बनी हुई थी। इसके पूर्व में  बंग, पश्चिम में  अवध, उत्तर में नागराज हिमालय और दक्षिण में पुण्य सलिला  गंगा सुशोभित  थी। उसी समय इस मिथिला की पवित्र भूमि पर (वर्तमान दरभंगा जिले के बहेड़ा थानान्तर्गत) सुसारी नामक एक  गांव है। इस सुसारी गाँव में पंडित  चिरायु मिश्र (चिड़ाय मिश्र ), पंडित  चिन्मय मिश्र  (चुनमुन्नी मिश्र ) एवं पंडित मानसी मिश्र तीन भाई रहा करते थे। तीनों भाई प्रकाण्ड विद्वान थे। मिथिला प्रांत में तीनों भाई की तूती बोलती थी। ये बेलौंचे-शुदै मूल और भारद्वाज गोत्र के मैथिल ब्राह्मण थे।

सूर्य ग्रहण  का पुण्यमय अवसर आनेवाला था। अतः तीनों भाइयों की इच्छा गंगा स्नान करने की हुई । अतः उन्होंने अपनी भार्या, इष्ट -मित्रों और अनुचारों के साथ गंगा की ओर यात्रा की। सर्वप्रथम तीनों  भाई दुलार राय के निवास स्थान (जो कि गंगा तट के करीब था ) पर गये और वहीं कुछ दिनों तक ठहरे। कालान्तर में पंडित चिरायु मिश्र और पंडित मानसी मिश्र वहाँ से अलग चले गये। पंडित चिरायु मिश्र चाक-साम्हो क्षेत्र में गये और पंडित मानसी मिश्र गहरामपुर चले गये। पंडित चिन्मय मिश्र दुलार राय के यहाँ ही रूक गये। कहा जाता है कि चिरायु मिश्र से चकवार (बारह गाँव ) तथा मानसी मिश्र से गया के समीप गहरामपुर एवं अन्य छः गांव का उद्भव एवं विकास हुआ।

चिन्मय मिश्र दुलार राय के निवास पर ही रहकर गंगा की सेवा करते थे तथा गंगा-स्नान करने आये श्रद्धालुओं को रामायण, गीता, पुराण आदि की कथा सुनाते थे, कर्म पद्धति बतलाते थे। वे बेहद ही शांत, धार्मिक  प्रवृत्ति के संत  थे। वे कार्तिक स्नान के पश्चात पुनः तिरहुत वापस जाने की सोचने लगे। इन्हीं दिनों दुलार राय को पंडित चिन्मय मिश्र से काफी  लगाव हो गया। जब उन्होंने अपने वापस जाने की बात कही तो दुलार राय काफी भाव विह्वल हो गये। वे बोले - हे संत! आप हमें छोड़कर मत जाइये। आप यहीं रहे। भगवान ने मुझे कोई संतान नहीं दी है। आप ही आज में मेरी संपत्ति  के स्वामी हैं। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति अपने जीते-जी पंडित चिन्मय  मिश्र के नाम कर दी थी। जब दुलार राय मरनासन्न हो गये तो उन्होंने चिन्मय मिश्र को बुलाकर कहा- मैं तो अब जा रहा हूँ। प्रभु का बुलावा आ गया है। आप हमें भूलियेगा नहीं। इसके  बाद उनके  प्राण पखेरु  उड़ गये।

दुलारपुर नाम कैसे पड़ा?


कुछ वर्षों बाद  पंडित चिन्मय मिश्र (अपभ्रंशित नाम पंडित चुनमुन्नी   मिश्र ) ने अपने गाँव का नाम दुलार राय की पावन स्मृति में दुलारपुर रखा। वर्तमान समय में यह गाँव  पश्चिम में गंगा नदी से  तथा उसका यह भाग पटना जिला के सटा हुआ है। पश्चिमोत्तर दुलारपुर दियारा का कुछ भूभाग वैशाली जिला को भी छूता है। दियारा का उत्तरी सिरा चमथा में जाकर मिलता है, जो कि समस्तीपुर जिला में अवस्थित है। इस प्रकार दुलारपुर चार जिला में अवस्थित माना जा सकता है  ऐसे दुलारपुर गाँव के पूरब में रघुनन्दनपुर एवं तेघड़ा रेलवे स्टेशन, पश्चिम में मेकरा (पटना), उत्तर में पिढौली तथा दक्षिण में अयोध्या, हसनपुर एवं तेघड़ा बाजार है। इसका क्षेत्रीय  विस्तार काफी  फैला  है। इसकी गणना जिला के एक बड़े गांव में की जाती है। दुलारपुर गाँव पिढौली, नवादा, रघुनन्दनपुर, आधारपुर-ताजपुर एवं (नयानगर ) दुलारपुर- रातगाँव, पंचायत में पड़ता है।

दुलारपुर दियारा में दुलारपुर चित्रनारायण, महमदपुर फत्ता, रामपुर गोपी, चगाजी, समसीपुर, रतुलहपुर, कोरटपट्टी, दरियापुर आदि मौजे हैं, जहाँ कि दुलारपुर के लोग कृषि कार्य करने जाते है। इमादपुर परगना में अवस्थित यह क्षेत्र चार थानों की निगरानी में है। तेघड़ा, बछवाड़ा, भगवानपुर  एवं मेकरा  (पटना )

१. रातगाँव -115  - 281 -मिर्जापुर  भीम (79 )
2. नयानगर-123  -328 - नयानगर (123)
3. आधारपुर- 127 -319 - सिकन्दरपुर (114)

दुलारपुर के लोग अपने ग्राम देवता  बाबा ज्ञानमोहन  की पूजा करते हुए. 
चित्र साभार : प्रशांत कुमार विक्की 



Jan 18, 2012

दुलारपुर दर्शन -2 (परिचय)

 दुलारपुर  गाँव  का भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बहुत ही महत्वपूर्ण  योगदान रहा है । रघुनाथ ब्रह्मचारी, गंगा प्रसाद सिंह, हरख सिंह  आदि लोगों ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद आजादी से पहले जब दुलारपुर आये थे, तब दुलारपुर मठ के तत्कालीन महंथ श्री प्रभु चरण भारती ने उन्हें 1000  रूपये चंदा दिया था। उस समय एक हज़ार रुपए बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी दुलारपुर मठ का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है।  यह आध्यात्मिक और सांकृतिक हलचल का एक महत्वपूर्ण  केंद्र रहा है।

यह दोमंजिला भवन दुलारपुर मठ का प्रवेश द्वार है। चित्र सौजन्य: श्री राकेश कुमार महंथ