अरुण प्रकाश के अप्रकाशित उपन्यास का अंश
अरुण प्रकाश ने मिथिला-कोकिल विद्यापति के जीवन को आधार बनाकर एक उपन्यास लिखा था. जिन दिनों मैं ‘बहुवचन’ का संपादन कर रहा था उसका एक अंश भी ‘बहुवचन’ के ११ वें अंक में प्रकाशित किया था. लेकिन पता नहीं क्यों उन्होंने इस उपन्यास को प्रकाशित नहीं करवाया. असल में, अरुण प्रकाश जी परफेक्शनिस्ट थे. जब तक अपनी किसी रचना से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो जाते थे उसे प्रकाशित नहीं करवाते थे. ‘पूर्वराग’ नामक उस उपन्यास की एक हलकी-सी झांकी लेते हैं।
पूर्व राग
श्रृंगार में पूर्व राग होता है. विद्यापति न केवल पूर्व राग के कवि थे बल्कि वे पूर्वी प्रदेशों के राग भी थे. असमिया, ओडिया, बांग्ला और नेपाली भाषाओं में विद्यापति के पद हैं तो कई भाषाओं में उनका प्रभाव लक्षित होता है. धार्मिक मार-काट के उस दौर में वैष्णव संप्रदाय ने पूर्वी भारत की लहुलूहान आत्मा पर कोमल फाहा रखा था और उसके रस थे विद्यापति.
इस उपन्यास में विद्यापति के सारे अंतरंगों के भाष्य हैं. इस प्रस्तुति में मिथिला के पक्षधर जयदेव का भाष्य है, जो आपबीती के साथ जगबीती भी सुनाते हैं.
पक्षधर भाष्य
मेरी ख्याति इस रूप में रही कि मैंने जिस भी पक्ष से शास्त्रार्थ किया वही पक्ष जीता. इसीलिए मेरा नाम जयदेव मिश्र से बदल कर लोगों ने पक्षधर मिश्र कर दिया. जिस काल में मेरा जन्म हुआ मिथिला में वह काल दर्शन के उत्कर्ष का काल था. वेद और उपनिषद दर्शन के मूल थे. लेकिन उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों का प्रभाव अधिक था. क्योंकि औपनिषदिक काल के दो प्रमुख दार्शनिक जनक और याज्ञवल्क्य मिथिला के ही थे.
मैं सरीसव गाँव में प्रसिद्ध पंडित महामहोपाध्याय भवनाथ मिश्र के टोल में पढ़ा करता था. भवनाथ मिश्र मेरे नाना पंडित हरि मिश्र के के काका थे. उनके टोल की ख्याति दूर-दूर प्रागज्योतिषपुर(गुवाहाटी), जगन्नाथ पुरी, नेपाल, नवद्वीप, नेपाल, त्रिपुरा राज तक फैली थी. महामहोपाध्याय की विद्वत्ता चारों ओर फैली थी. वे कृशकाय थे, गौरवर्ण, लंबा, सीकिया शरीर. लेकिन जीवन के चौथे में होने के बावजूद उनके दांत वज्र की तरह कठोर थे. आँखों में कोई धुंधलापन नहीं आया था. छोटे-छोटे अक्षरों की पोथी स्वयं पढ़ लेते थे. वैसे उन्हें पढ़ने की जरुरत ही क्या थी. अधिकांश पोथियाँ तो उन्हें कंठस्थ थीं. उन्होंने वर्षों से अन्न त्याग रखा था. फल, दूध, दही, उबली सब्जियां ग्रहण करते थे. सवेरे उठकर स्नान-ध्यान करते. जलपान के बाद टोल का एक चक्कर लगाते यह देखने के लिए कि शिक्षक छात्र को पढ़ा रहे हैं या नहीं. शिक्षकों से दो-चार बातें कर फिर स्वाध्याय में जुट जाते. हम छात्रों को अकेले उनके पास जाने की मनाही थी. जब किसी शंका का निवारण हमारे शिक्षक नहीं कर पाते तभी शिक्षक हमें महामहोपाध्याय के पास ले जाते. वे विकट तर्कशास्त्री, कर्मकांड में निष्णात, अर्थशास्त्री(तब राजनीति शास्त्र, प्रशासन, संधि-विग्रह, राजनय आदि का सम्मिलित नाम यही था) थे.
उनके पास राजपुरुष, राज-अधिकारी, विद्वतजन, संत-महात्मा आते रहते. उनसे परामर्श कर लौट जाते. हम टकटकी लगाये दूर से सब देखा करते थे. लेकिन उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा पाते थे.
महामहोपाध्याय की ख्याति सिर्फ मिथिला तक नहीं थी बल्कि बंगाल, असम, उड़ीसा और उत्तर भारत के अन्य सत्ता केन्द्रोंमें भी थी. कहते हैं जब महामहोपाध्याय युवा थे तब राजाओं के आमंत्रण पर कर्मकांड संपन्न करवाने जाया करते थे.
महामहोपाध्याय को संपत्ति, सत्ता या सत्ता से निकटता का लोभ कभी नहीं रहा. मिथिला की आत्मा के वे प्रहरी थे. मिथिला के शासक ओइनवार वंश वंश में कोई ऐसा नहीं था जो कठिन प्रश्नों और समस्याओं पर उनसे सलाह ना ले. उस वंश में किसी में यह साहस नहीं था कि महामहोपाध्याय के नैतिक और सुचिंतित सलाह की अवहेलना कर दे. उनके एक आह्वान पर मिथिला का जनमत डोलने लगता था. वे राजपंडितों के पंडित थे. वे सुखी दिखते थे. लेकिन अन्न त्याग देने से लगता था कि वे मन ही मन कोई प्रायश्चित कर रहे हों.
मेरे नाना हरि मिश्र बार-बार कहते- ‘हरि तत्वचिंतामणि लिखकर पूज्य गंगेश उपाध्याय ने न्याय दर्शन की जो धारा बहाई उसका विकास मिथिला में नहीं हो रहा है. छत्तीस नदियों से मथी जाने वाली मिथिला बाढ़, अकाल, गरीबी, जड़ शासन और अवरुद्ध समाज के लिए नहीं जाना जाता है. ज्ञान की दीप्ति ही मिथिला का मुकुट है. यदि वह ज्ञान छिन गया तो मिथिला गौरव विहीन हो जायेगी. दरिद्रों से जब आत्मगौरव छीन जाता है तो दरिद्रता स्थायी हो जाती है. मनुष्य नदी और समुद्र में तैरने के बजाय कुएं का बेंग होकर रह जाता है. सर्वदा स्मरण रखना कि समाज और देश को विचार ही संकट से उबारता है. हरि, इन्हीं छात्रों को न्याय के अध्ययन के लिए प्रेरित करते रहो. कोई कोंपल तो फूटेगा जो विशाल वृक्ष बन जाएगा.’
टोल में व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, कर्मकांड, आयुर्वेद, षड्दर्शन, न्याय दर्शन, अर्थशास्त्र और कलाओं के अध्ययन की व्यवस्था थी. मेरी रूचि आयुर्वेद की तरफ थी लेकिन मेरे नाना ने साम-दाम दंड-भेद का उपयोग कर न्याय दर्शन की तरफ मोड़ दिया था. धीरे-धीरे मैंने तर्क को ही ज्ञान का मार्ग मान लिया था.
मेरे ठीक उलट था विद्यापति ठाकुर. सांवला, दुबला-पतला लेकिन मजबूत. उसके स्वभाव की कोमलता का पता पहले ही दिन चल गया था. जब अपने पिता राज पंडित गणपति ठाकुर के बगल में वह महामहोपाध्याय के साथ खड़ा रो रहा था. टोल में आने वाले नए छात्र अक्सर अपने अभिभावक से बिछुड़ने के दुःख में उदास हो उठते थे. पर वह तो रो ही पड़ा था. जैसे टोल शिक्षा संस्थान न होकर कोई वध स्थल हो.
विद्यापति को मेरे नाना के समूह में ही रखा गया था. फिर उससे मेरी निकटता बढ़ी तब उसने बताया, ‘मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है? प्राणों से भी प्यारा रहा है मेरा गाँव विस्फी. अचानक वहां से हटाकर मुझे राजधानी ओईनी भेज दिया गया. फिर माँ से अलग कर यहां सरिसव गाँव में पटक दिया गया. गाँव के मेरे मित्र सखा, ओईनी के मेरे मित्र राजकुमार शिव सिंह इन्द्रसेन, गदाधर, सुभद्र सब छूट गए. मित्रों परिजनों को छोड़ ज्ञान के लिए भटकना क्या उचित है? जो ज्ञान दुःख दे उससे क्या लाभ?’
मैं तत्क्षण समझ गया था कि विद्यापति में ज्ञान का मोह नहीं है. जीवन का मोह है. ज्ञान का राग नहीं है, जीवन का राग है. फिर भी मैंने स्वभाव से बाध्य होकर विद्यापति को कोंचा. उसकी सुलभ कोमलता का उपहास उड़ाया. विद्यापति और डर गया. तब मैंने वरिष्ठ छात्र होने के नाते विद्यापति को उपदेश दे डाला- ‘तुम यहां टोल में हो. छात्रों के रहने के लिए चटिसार(छात्रावास) है. यहां रुखा-सूखा भोजन मिलेगा. तापस जैसा कठोर जीवन जीना पड़ेगा. लेकिन स्मरण रखना कि तुम किसी पत्रहीन नग्न गाछ के नीचे खड़े वर्षा और धूप नहीं झेल रहे हो. साधारण वस्त्र पहनने होंगे. चटिसार के भोजन से तुम्हारी जिह्वा तृप्त नहीं होगी. लेकिन ज्ञान की तृप्ति अवश्य मिलेगी. सभी शास्त्रों के एक से एक शिक्षक यहां हैं. तुम मिथिला के सर्वश्रेष्ठ टोल में आए हो. विभिन्न क्षेत्रों का परिचय बढ़ेगा. मित्रता स्थापित होगी. इसलिए विद्यापति यह विलाप छोड़ो और प्रवृत्त हो जाओ. सर्वदा स्मरण रखना कि पाठ स्मरण न करने पर तुम्हें भारी दंड दिया जाएगा. शिक्षक यह नहीं सोचेंगे कि तुम राजपंडित गणपति ठाकुर के पुत्र हो. और महामहोपाध्याय तो गणपति ठाकुर के गुरुवत हैं. तुम शिक्षा समाप्त किए बिना टोल से छुटकारा नहीं पा सकोगे.’
विद्यापति मेरी एक-एक बात गुनता रहा. आगे चलकर उसके स्वभाव में परिवर्तन आया. वह संतुलित हो चुका था. थोड़ी परिपक्वता आ गई थी. फिर भी मैं उसे यदा-कदा छेड़ता, ‘खेलन! ओईनी जाने का मं नहीं करता. महामहोपाध्याय से कहकर तुम्हें विस्फी भिजवा दूँ?’ विद्यापति ने एक बार चिढकर कह ही दिया, ‘महामहोपाध्याय तुम्हारे परनाना हैं. लेकिन उनके समक्ष तुम्हारे नाना पंडित हरि मिश्र भी बोल नहीं पाते. तुम क्या बोल पाओगे? जयदेव तर्क करते-करते दूसरों में दोष देखना तुम्हारा स्वभाव बना गया है. तुम अच्छे तार्किक हो. मौलिक तर्क उपस्थित करते हो लेकिन अब तुम्हें दूसरों को नीचा दिखाने में आनंद आने लगा है. ज्ञान के साथ अगर विनम्रता नहीं है तो उस ज्ञान की सुगंध फैलती नहीं है. तुम दूसरों में सिर्फ दोष देखने के बजाय गुण भी देखने का अभ्यास करो. नकार से जीवन बंध जाता है, सकार से जीवन सधता है. वही उसका पाथेय भी होता है.’
मैं जीवन के अंतिम चरण में सोचता हूं कि तब विद्यापति ने ठीक ही कहा था. हालांकि विद्यापति से मेरा मतभेद दृष्टिकोण को लेकर सर्वदा रहा. वह जीवन के हर क्षेत्र में सकारात्मक समन्वय का पक्ष लेता रहा और मैं दर्शन के क्षेत्र में अकाट्य तर्कों के बल पर ज्ञान-दिग्विजय का स्वप्न देखा करता था. और अपने इस स्वप्न का पीछा करते-करते किसी भी लक्ष्मण रेखा को पार करने को तत्पर रहता था. वहीं विद्यापति ने अनगिनत अवसरों और प्रलोभनों के बावजूद अपनी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कभी नहीं किया. वह जीवन प्रवाह में सहज रूप से बहता जाता था. जब जो घात आया वहीं रम जाता था. और फिर अगर धारा में बहने की नौबत आई तो तो उस घाट का मोह छोड़कर धारा में यों बहने लगता जैसे वह पुराने घाट पर गया ही नहीं. विद्यापति का जीवन उसके गाँव की कमला नदी जैसा था. सावन-भादो आते ही कमला जैसे अपने किनारों को लाँघ जाना. वही कमला शांत सकुचाती वर्ष के बाकी महीनों में बहती रहती है तब भी किसी को अचरज कहां होता. क्योंकि यह सब कुछ धर्म के अनुकूल है. साभार - जानकी पुल
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