इस पोस्ट में गाँव और शहर के बीच के मौलिक अंतर को समझने का प्रयास करते हैं. हो सकता है कि मेरे विचार से कई बार आप सहमत न हों. गाँव में एक सरलता और सादगी दिखती है.
गाँव में लोगों का जीवन शांत और स्थिर प्रतीत होता है. लोग आपस में बात करते हैं, एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होते हैं. हालांकि इसमें भी बदलाव होना शुरू हो गया है. टी. वी. आज गाँव में भी हर घर में पहुँच चुका है और दादा दादी और नाना नानी का स्थान ये उपकरण लेते जा रहे हैं. बाबजूद इसके लोगों में एक अपनापन दीखता है. हालांकि गाँव में भी लोगों के पास पैसे आ गए हैं. लोग दिखावा करने लगे हैं. यदि पहले की बात करें तो गाँव के सबसे अमीर व्यक्ति और सामान्य व्यक्ति के बच्चों के कपडे और रहन सहन में कोई खास फर्क नहीं होता था लेकिन अब थोडा थोडा दीखने लगा है.
दूसरी तरफ शहर में लोग भागते नजर आते हैं मानो उनमें कोई रेस चल रहा हो. लोगों के पास खाने और नाश्ता करने का समय नहीं है. लोग कार में बैठे बैठे नाश्ता कर रहे होते हैं. शहरों में गाड़ियों की बढ़ती संख्या इस बात का सबूत है कि उनके पास कितना पैसा है और उनकी दैनिक गति कितनी तेज है. लोगों में कोई अपनापन नहीं. सब पैसे कमाने के अंधे दौड़ में शामिल हैं.
सड़क पर कोई गिरा पड़ा मिल जाय तो लोग गाडी रोककर देख लेते हैं और चलते बनते हैं. कभी कभी तो ऐसा लगता है कि कितने हृदयहीन लोग रहते हैं शहरों में. यह बात सही है कि बड़े शहर लोगों को रोजगार देते हैं और शायद इसी कारण से लोग भागे भागे शहर आ जाते है. लोगों की भी मजबूरी है.
यदि गाँव में ही रोजगार उपलब्ध हो जाए तो यह पलायन रुक सकता है. लेकिन इसके लिए सरकारों को ऐसा वातावरण बनाना होगा. इस पोस्ट पर आप अपने अनुभव भी शेयर करें. आपका सदैव स्वागत है.
गाँव में लोगों का जीवन शांत और स्थिर प्रतीत होता है. लोग आपस में बात करते हैं, एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होते हैं. हालांकि इसमें भी बदलाव होना शुरू हो गया है. टी. वी. आज गाँव में भी हर घर में पहुँच चुका है और दादा दादी और नाना नानी का स्थान ये उपकरण लेते जा रहे हैं. बाबजूद इसके लोगों में एक अपनापन दीखता है. हालांकि गाँव में भी लोगों के पास पैसे आ गए हैं. लोग दिखावा करने लगे हैं. यदि पहले की बात करें तो गाँव के सबसे अमीर व्यक्ति और सामान्य व्यक्ति के बच्चों के कपडे और रहन सहन में कोई खास फर्क नहीं होता था लेकिन अब थोडा थोडा दीखने लगा है.
दूसरी तरफ शहर में लोग भागते नजर आते हैं मानो उनमें कोई रेस चल रहा हो. लोगों के पास खाने और नाश्ता करने का समय नहीं है. लोग कार में बैठे बैठे नाश्ता कर रहे होते हैं. शहरों में गाड़ियों की बढ़ती संख्या इस बात का सबूत है कि उनके पास कितना पैसा है और उनकी दैनिक गति कितनी तेज है. लोगों में कोई अपनापन नहीं. सब पैसे कमाने के अंधे दौड़ में शामिल हैं.
सड़क पर कोई गिरा पड़ा मिल जाय तो लोग गाडी रोककर देख लेते हैं और चलते बनते हैं. कभी कभी तो ऐसा लगता है कि कितने हृदयहीन लोग रहते हैं शहरों में. यह बात सही है कि बड़े शहर लोगों को रोजगार देते हैं और शायद इसी कारण से लोग भागे भागे शहर आ जाते है. लोगों की भी मजबूरी है.
यदि गाँव में ही रोजगार उपलब्ध हो जाए तो यह पलायन रुक सकता है. लेकिन इसके लिए सरकारों को ऐसा वातावरण बनाना होगा. इस पोस्ट पर आप अपने अनुभव भी शेयर करें. आपका सदैव स्वागत है.
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